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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ क्षणद्वयावस्थितत्वेन ग्रहणात् कथं नाऽक्षणिकत्वग्रहणम् ? तथाहि - एतद्ग्राहि ज्ञानमुपजायमानमेवं स्वविषयमवभासयति ‘नायं सम्प्रत्येव नीलाद्यर्थः अपि तु प्रागासीत्' इति । यतश्चक्षुरादिव्यापारोद्भूतप्रतिपत्तिभेदः प्रादुर्भूत-प्रादुर्भवद् घटविषयत्वेन सुप्रसिद्ध एव उत्पद्यमानविषयावगमस्वभावप्रतिपत्तेः तद्विपरीतार्थालम्बनाऽप्रतीतिः अपरैव लोकेनानुभूयते । 5 २१२ न चैकसन्तान - पूर्वसन्तानव्यावृत्तिनिबन्धनाऽपरसन्तानोत्पत्तिनिबन्धनोऽयं प्रतिपत्तिभेद: क्षणिकत्वसिद्धावेतद्वचनस्य घटमानत्वात् तत्र चाद्यापि विवादात् । न च जनकोऽर्थो वर्त्तमानकालतया नाक्षसंविदि प्रतिभाति किन्तु तस्यां तत्समानकालभाव्याकारस्तेनाधीयते तस्य तथावभासात् वर्त्तमानार्थावगम इत्युच्यते, ज्ञानकाले बहिरवभासमानस्य नीलादेर्ज्ञानाकारतयाऽसिद्धेः, अन्यथाऽन्तरवभासमानस्य सुखादेरप्यर्थाकारताप्रसक्तिः इति ज्ञानसत्तैवोत्सीदेत्। निराकरिष्यते च साकारता ज्ञानस्य । 10 न चार्थस्य ज्ञानजनकत्वेऽवगते क्षणद्वयस्थायित्वमर्थस्य सिध्यति, तदेव तु तस्यावगन्तुमशक्यम् । प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न हो कर इस तरह ज्ञापन करता है कि मेरा नीलादि विषय 'सिर्फ वर्त्तमान में ही है ऐसा नहीं, पहले भी था।' इस प्रकार से ज्ञान होने का कारण :- एक ही घट को विषय करते हुए चक्षुआदिव्यापारजन्य पृथक् पृथक् प्रतीति भेद, 'घट उत्पत्ति हो रही है, घट उत्पन्न हुआ' इस प्रकार से सुविदित है । प्रतीतिभेद तो स्पष्ट है क्योंकि ' उत्पन्न हो रहा है' ऐसी बोधस्वरूपा प्रतीति 15 अलग होती है और उत्पन्न अर्थ विषयक प्रतीति अलग होती है ऐसा लोकानुभव प्रसिद्ध । (इस से उत्पत्तिप्रक्रियाधीन एवं उत्पन्न घटादि एक होने से अक्षणिक होने का फलित होता है ।) [ प्रतीतिभेद एकसन्तानमूलक कहना शोभास्पद नहीं ] यदि कहा जाय 'यह जो प्रतीतिभेद है वह एकघटविषयमूलक नहीं है किन्तु एकसन्तानमूलक है जिस में उत्पत्तिप्रक्रियाधीन पूर्वसन्ताननिवृत्तिप्रयुक्त अन्यसन्तानोत्पत्ति ही प्रयोजक है ।' यह ठीक 20 नहीं है, जब तक अन्य प्रमाण से क्षणिकत्व सिद्ध हो जाय तभी सन्तानवार्त्ता शोभायुक्त हो सकती है, किन्तु अब तक तो क्षणिकत्व ही विवादग्रस्त है। यदि कहें जनक यानी पूर्ववर्ती क्षण प्रत्यक्ष ज्ञान में वर्त्तमानकालीनरूप से संविदित नहीं होता ( अतः क्षणद्वयअवस्थिति की सिद्धि शक्य नहीं ।) किन्तु पूर्ववर्त्ती क्षण उत्तरज्ञान में वर्त्तमानकालभावितास्वरूप आकार का आधान करता है, इसी लिये प्रत्यक्ष में पूर्वक्षण की वर्त्तमानता भासित होती है, उसी को वर्त्तमानार्थप्रत्यक्ष कहा जाता है। यदि 25 ऐसा कहेंगे तो वह ठीक नहीं है । कारण :- प्रत्यक्षकाल में बाह्यरूप से भासमान नीलादि बाह्यभाव ही होता है, उस की ज्ञानाकारता सिद्ध नहीं है । अन्यथा, ऐसी भी कल्पना हो सकेगी कि भीतर में बाह्यभावजन्य सुखादि में बहिर्भावाकारता की आपत्ति आयेगी । फिर बहिर्भावों में ज्ञानाकारता मान लेने से ज्ञानसत्ता का ही उच्छेद हो जायेगा । बाह्यार्थ की सत्ता के बदले ज्ञान में साकारता ( अर्थाकारता) की मान्यता का तो अग्रिम चतुर्थभाग में विस्तार से निरसन किया जायेगा । [ अर्थ के ज्ञानजनकत्व के अवगम की शंका और समाधान ] 30 आपादन :- क्षणद्वयस्थायित्व अर्थ में तब सिद्ध होगा जब प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा पूर्वक्षण के ज्ञानजनकत्व का भी ग्रहण किया जाय । महत्त्व की बात यह है कि पूर्वक्षण के ज्ञानजनकत्व का प्रत्यक्ष Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only — www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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