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________________ खण्ड - ३, गाथा-६ गृह्यमाणानां तत्कालविद्यमानता नोपयोगिनी यत्र चान्त्यसंख्येयग्रहणसमये पूर्वावगतसंख्येयानामभावस्तत्र यथा तेषामुपयोगः तथा पूर्वकालादितया अपि तदविशिष्टाया उपयोगो भविष्यतीत्यनवद्यम् । अथापि स्यात् – वर्त्तमानतापरिच्छेदसमये तदभावनियतभावत्वात् न पूर्वतावगतिर्भावानाम् नीलपरिच्छेदे पीतादीनामिव । तथाहि - नीलप्रच्युत्यविनाभूतत्वात् पीतादीनां नीलपरिच्छेदकं प्रमाणं तत्प्रच्युतेरिव तदविनाभूतपीतादिव्यवच्छेदं कुर्वदेव तत् परिछिनत्ति, तद्वद् इदानींतनपदार्थपरिच्छेदाय प्रमाणं प्रवृत्तं 5 तत्प्रच्युत्यविनाभूतानां व्यवच्छेदकम् । वर्त्तमानश्च समयः तत्प्रच्युत्या विरुद्धः इति तद्व्याप्तावप्यतीतानागतौ तेन विरुद्धाविति तदवच्छिन्नस्यापि भावस्य वर्त्तमानावच्छिन्नेन सह न समावेश: तयोः परस्परपरिहारत्वेन विरोधात् । तेन वर्त्तमानसम्बन्धिताग्राहिणा प्रमाणेन तत्प्रच्युत्यविनाभूतव्यवच्छेद्यस्य व्यवच्छेदमकुर्वाणेन वर्त्तमानसम्बन्धित्वमेव न परिच्छिन्नं भवेत् । ततः पूर्वापरसमयसम्बन्धिनोर्नानात्वे यन्नानाभूतानामेकत्वग्राहि प्रमाणं तस्य अतस्मिंस्तद्ग्रहणरूपत्वाद् अप्रामाण्यम् । अत एवैकत्वाध्यवसायस्य सदृशापरापरेत्यादिभ्रम- 10 निमित्तादुत्पादः परिगीयते । असदेतत् यतो नैकत्वेन निश्चीयमानस्य परस्परविरुद्धकालादिव्यवच्छेदाद् नानात्वम् छत्रअभाव होता है फिर भी उन का भान होता है, इसी तरह पूर्वकालताविशिष्ट अर्थबोध में पूर्वकाला आदि का भान भी होता है, जिस में कोई दोष नहीं । २०९ [ पूर्वापरभाव के एकत्व की बुद्धि भ्रममूलक-शंका ] शंका :पूर्वता हर हमेश वर्त्तमानता के अभाव से नियतभाववाली होती है। अतः भावों क वर्त्तमानता के बोधकाल में पूर्वता के न होने से पूर्वता का बोध नहीं होता । उदा० नीलरूप पीताभाव से नियत होने के कारण नीलबोधकाल में पीतादि का बोध नहीं होता। क्यों ? देखिये- पीतादि रूप नीलप्रच्युति (= नीलाभाव) के अविनाभूत होता है। अतः नीलपरिच्छेदक प्रमाण जैसे नीलाभाव का व्यवच्छेद करता है वैसे नीलाभाव - अविनाभावि पितादि का भी निरसन करता हुआ ही नील का 20 भान करता है। इसी तरह - वर्त्तमानभावबोधार्थ प्रवृत्त प्रमाण वर्त्तमानता - अभाव ( का व्यवच्छेद करने के साथ) उस के अविनाभावि पूर्वतादि का भी व्यवच्छेद करेगा ही । जैसे वर्त्तमान क्षण का स्व-अभाव के साथ विरोध है वैसे स्व-अभाव से नियतभाववाले अतीत और अनागत क्षण के साथ भी विरोध है । अतः अतीत या अनागत से अवच्छिन्न ( = संसृष्ट) भाव का वर्त्तमानसंसृष्ट भाव के साथ सहभावरूप समावेश असम्भव है, क्योंकि वर्त्तमानता और अतीतादिता परस्परपरिहारावस्थित होने से विरुद्ध है । 25 तात्पर्य, वर्त्तमानसंसर्गिताग्राहक प्रमाण यदि स्व-अभाव अविनाभूत अतीतादि व्यवच्छेद्य का व्यवच्छेद नहीं कर पायेगा तो वह वर्त्तमानसंसर्गिता का बोध करेगा कैसे ? Jain Educationa International निष्कर्ष :- पूर्वापरसम्बन्धिद्वय में भेद होने पर भी, भिन्न भिन्न उन दोनों में एकत्वग्राहि जो तथाकथित प्रमाण दिखाया जायेगा वह अतथाभूत भाव में तथाप्रकारग्राहि होने से प्रामाण्यधारक नहीं रहेगा। इसी कारण से कहा जाता है कि वहाँ जो एकत्वबुद्धि उत्पन्न होती है वह तुल्य नये नये 30 भावक्षण की निरंतर उत्पत्ति रूप भ्रमनिमित्त के जरिये होती है। For Personal and Private Use Only 15 www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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