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________________ खण्ड - ३, गाथा-५ एकपर्यायस्य परपर्यायाऽसंस्पर्शात् । उक्तं च तन्मतमर्थं प्ररूपयद्भिः - [ ] पलालं न दहत्यग्निर्दह्यते न गिरिः क्वचित् । नाऽसंयतः प्रव्रजति भव्यजीवो न सिद्ध्यति ।। पलालपर्यायस्य अग्निसद्भावपर्यायादत्यन्तभिन्नत्वात्, यः यः पलालो नासौ दह्यते यश्च भस्मभावमनुभवति नासौ पलाल - पर्याय इति । यानी ( विषयबोधक) वचनात्मक शब्द का ही यहाँ प्रतिपादन अभिप्रेत है । शंका :- पर्यायनय का प्रतिपाद्य विषय तो अर्थ ही है न कि शब्द । फिर शब्द को क्यों 'प्रतिपाद्य' दिखाते हैं ? उत्तर :- नय का आधारभूत जो अर्थ (यानी विषय) है उस का प्रतिपादक वचन उस से (अर्थ से) सर्वथा भिन्न नहीं होता, कथंचिद् अभिन्न होता है । अतः पर्यायनय का विषय शब्द भी है । शंका :- अर्थ को ही पर्यायनय का विषय क्यों न कहा ? उत्तर :- न कहने का प्रयोजन यह है प्रतिपादन करे तभी प्रमाणभूत माना गया है को पर्यायनय का आधार कहा I कि शब्दनय अर्थव्युत्पादक शब्द से गर्भित ही वाच्यार्थ का इसी तथ्य को इंगित करने के लिये सूत्रकार ने शब्द ३ - *. तत्त्वार्थ० टी० पृ.४०२ पं. २२ । श्री भगवतीसूत्र टी. पृ. २०५ अ. पं. ४ - ' त्यग्निर्भिद्यते न घटः क्वचित्” । • ' भव्योऽसिद्धो न सिध्यति' नयोप. पृ.४० द्वि. श्लो. ३१ । - इति पूर्वसम्पादकौ । Jain Educationa International [ पर्यायनय का कुछ स्वरूप निर्धारण ] पर्यायनय के प्रस्ताव में, पूर्वापर (यानी नष्ट - अनुत्पन्न) पर्यायों से सर्वथा पृथक् वर्त्तमान एकपर्याय के बारे में (यहाँ विषय अर्थ में सप्तमी विभक्ति है ।) प्ररूपण करनेवाला वचन ही सीमाबद्ध यानी मर्यादानुसारी हो सकता है, क्योंकि वर्त्तमान एक पर्याय कभी अन्य पर्याय से सम्बन्ध नहीं रखता। विशेषस्वभाव ही पर्याय है (जो कि वर्त्तमानसमय की ही वस्तु है ।) वह अपने निराले स्वभाव में ही निमग्न रहता है, अन्य किसी पर्याय के प्रति उस को कुछ भी लेना देना नहीं है इस प्रकार की मान्यता धारण करने 20 वाले तज्ज्ञों ने भी यही कहा है (तत्त्वार्थसूत्र आदि में उद्धृत) 'अग्नि पलाल (= तृणविशेष) का दहन नहीं कर सकता, पर्वत कभी दाहाभिभूत नहीं होता, असंयत कभी प्रव्रज्या = दीक्षा) अंगीकार नहीं करता, भव्यजीव कभी सिद्ध नहीं बन सकता । " भावार्थ :- लोग रूढी से ( उपचार से ) कहते हैं कि अग्नि पराळ को भस्मीभूत करता है । किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से देखे तो पता चलेगा कि पलाल-पर्याय और अग्निज्वलनपर्याय यानी ( भस्मीभवन पर्याय) दोनों एक- 25 दूसरे से अत्यन्तभिन्न एवं भिन्नक्षणवृत्ति हैं, दोनों ही एक-दूसरे से अलिप्त असम्बद्ध । कारण, पराळ जब तक जिस क्षण में जिन्दा है, पराळ ही है, वह दाहपरिणत कैसे उस क्षण में कहा जायेगा ? भस्मीभावापन्न क्षण उस से सर्वथा भिन्न ही है, जिस को पलाल पर्याय के साथ कोई स्नान- सूतक ही नहीं है तो कैसे कह सकते हैं कि भस्मभाव पराल का ? इसी तरह प्रतिक्षणभिन्न पर्यायों के कारण पर्वत और भस्मभाव, असंयत और प्रव्रजित एवं भव्यजीव एवं सिद्धजीवों का भी सर्वथा भेद समझ लेना । For Personal and Private Use Only 5 10 15 30 www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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