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________________ खण्ड-३, गाथा-६ १९३ यद्यप्यपरकारणान्तरसन्निधानात् कार्यं वैलक्षण्येनैवोत्पत्तुमिच्छति [?? तथापि प्राक्तनघटक्षणस्य तत्स्वभावत्वाद् न त्वेवं कार्योत्पत्तिः स्याद् नान्यथेति। न च स्वहेतुतो समर्थजननस्वभावस्य तस्योत्पत्ते यं दोषः प्रथमक्षण एवं(?व) सन्तत्युच्छेदप्रसक्तिः। अतो मुद्गरादिव्यापारकालेऽपि यदि स्वहेतुत एव समानक्षणान्तरजननसामर्थ्य घटक्षणस्य समस्ति ततः सदृशक्षणान्तरोत्पत्तेर्मुद्गरादिसंनिधानं व्यर्थम् । अथ स्वहेतुतः समानक्षणान्तराऽजननसमर्थो घटक्षण: तथापि प्राक्तनक्षणादिवत् तत्क्षणादप्यपरक्षणान्तरजनकस्य 5 समानक्षणोत्पत्तेर्व्यापारवन्मुद्गरसन्निधिर्व्यर्थः एव । एतच्च- ‘स्वहेतुतो भावस्य नश्वरस्वभावत्वे न किञ्चिन्नाशहेतुना अनश्वरस्वभावत्वेऽपि सुतराम्' - इति वदता परेण दूषणमभ्युपगतमेव । न चाऽकिञ्चित्करस्यापि मुद्गरादेः समर्थक्षणजनकस्वभावयुक्त होने के बाद स्वयमेव असत् हो गया। यहाँ मोगर आदि से कुछ शक्तिविघात किया गया - ऐसी बात ही नहीं है। [विलक्षण कार्योत्पत्ति के स्वीकार पक्ष में असंगतियाँ ] (इस परिच्छेद में तथापि... से लगा कर (पृ.१९३-१) 'प्रच्युतिर्भवेत् ?' (१९७-४) पाठ पर्यन्त, भूतपूर्वसम्पादकों ने अशुद्ध पाठ का निर्देश किया है इस लिए उस का सम्यक् विवेचन शक्य नहीं, फिर भी स्थान अशून्यार्थं कुछ प्रयास करते हैं) - यद्यपि नये नये अन्यकारणों के सानिध्य में कार्य कुछ विलक्षण प्रकार से उत्पत्ति के लिये तत्पर रहता है (अतः मोगरप्रहार निरर्थक कहने का साहस किया जाय) किन्तु ऐसे तो उस का पूर्वघटक्षण 15 भी तथाविधस्वभाववाला होने पर ही विलक्षण प्रकार से कार्योत्पत्ति हो सकती है अन्यथा नहीं। ऐसा मत कहना कि - ‘पूर्वघटक्षणरूप हेतु से कार्य समर्थजननस्वभाववाला ही उत्पन्न होता है - अतः प्रस्तुतक्षण में विलक्षण कार्य (असमर्थकार्यक्षण) का दोष नहीं होगा।' – निषेधकारण :- प्रथमक्षण में ही सकल भावि समर्थक्षणों की उत्पत्ति प्रसक्त होने से समुचे सन्तान के उच्छेद की आपत्ति होगी (नतीजा, मोगरप्रहारकाल में भी यदि प्रस्तुतघटक्षण में अपने हेतुवृन्दप्रयुक्त समानअन्यक्षणजननसामर्थ्य मानना पडेगा, 20 फिर तो उस से सदृश यानी समर्थ अन्यक्षण की ही उत्पत्ति प्रसक्त होने के कारण मोगरप्रहार सांनिध्य की निरर्थकता का कलंक लगा रहेगा। [मोगरप्रहार की व्यर्थता का कलंक तदवस्थ ] अब यदि कहें कि - ‘अपने हेतुओं से समानउत्तरक्षण अजननसमर्थ घटक्षण की उत्पत्ति होती है' - फिर भी पूर्वक्षणादि की तरह (नियामक न होने से) प्रस्तुतक्षण से अन्यक्षणजनक ऐसे समान 25 (असमर्थ) क्षणोत्पत्ति हो जायेगी, उसमें जैसे अन्य किसी का व्यापार व्यर्थ है वैसे मोगरप्रहारसांनिध्य भी व्यर्थ होने का कलंक अनिवार्य रहेगा। आपने स्वयं भी इस कलंक का स्वीकार तब कर ही लया है जब आप ने कहा है कि - भाव यदि अपने हेतु से नश्वरस्वभाव उत्पन्न होता है तो नाशहेतु (मोगरप्रहारादि) अकिञ्चित्कर (यानी व्यर्थ) है। यदि अनश्वरस्वभाव उत्पन्न होता है तब तो सुतरां नाशहेतु व्यर्थ है। ऐसा मत कहना कि - प्रस्तुत घट क्षण द्वारा असमर्थ अन्यक्षणजनन काल में अकिञ्चित्कर 30 मोगरप्रहार कोई उपालम्भपात्र नहीं है क्योंकि वह भी अपने हेतुओं के सांनिध्य के बल से अकिञ्चित्करस्वरूप से ही उपस्थित होता है (जिस को कहते हैं अवर्जनीयसंनिधि)।' - निषेध कारण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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