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________________ खण्ड-३, गाथा-६ स्यावस्थाना(?ने) पूर्ववदुपलब्ध्यादिप्रसक्तिर्भवेत्। न च तस्य तदा स्वयमेवाभावाद् नोपलब्ध्यादिरिति वक्तव्यम् यतः सोऽपि तदभावस्तदैव मुद्गरादिव्यापारानन्तरमुपलभ्यते अन्यदा तु नोपलभ्यत इति कथं न तत्कार्यः ?! अथ न (?) भावाभावो भावस्वरूपादन्यः केवलं कल्पनाविषयत्वादसदेवासो व्यवहारपथमवतार्यते। नन्वेवं भावप्रच्युतेः काल्पनिकत्वे भावानामपि काल्पनिकत्वमपरिहार्यम् यतो लाक्षणिको विरोधो नीलपीतादे: 5 परैरभ्युपगतः, वस्तुस्वरूपव्यवस्थापकं च लक्षणं तन्निमित्तो विरोधो नीलप्रच्युत्या, तद्विरोधे च पीतादीनामपि तत्प्रच्युतिव्याप्तानां तेन विरोधः, तथा च प्रमाणं नीलपरिच्छेदकत्वेन प्रवृत्तं नीलप्रच्युतिं तद्व्याप्तांश्च पीतादीन् व्यवच्छिन्ददेव स्वपरिच्छेद्यं नीलं परिच्छिनत्तीत्यभ्युपगमः । स च शशविषाणस्येव भावाभावकाल्पनिकत्वाभ्युपगमे कथं मु(?यु)क्तिसङ्गतः ? न हि शशविषाणप्रख्यस्य भावाभावस्य भावविरुद्धत्वम् पीतादिव्यापकत्वं वा प्रमाणाऽविषयत्वेन व्यवस्थापयितुं शक्यम् यतस्तस्य प्रतिनियतपदार्थव्यवस्थाहेतुत्वं भवेत्। 10 न च विनाशस्य मुद्गरादिजन्यत्वमसिद्धम् विरोधिरूपतया लोकस्थित्या मुद्गरादीनां तत्कारणत्वहो जाता है अतः उस की उपलब्धि आदि का प्रसञ्जन नहीं होगा,' - निषेध का हेतु यह है कि अन्वय-व्यतिरेक देख लो कि वह अभाव भी उसी काल में मोगरप्रहार के तुरंत बाद दिखता है, अन्य काल में नहीं तो उसे उस का कार्य क्यों न माना जाय ?? क्षणिकवादी :- भाव का अभाव भावस्वरूप से भिन्न नहीं (?) है, तथापि (पृथग् रूप से) वह 15 असद्रूप से व्यवहार गोचर बनता है क्योंकि वह विकल्प का विषय है। स्थायित्ववादी :- यदि भावप्रच्युति (स्वरूप अभाव) को आप काल्पनिक (यानी विकल्प का विषय) कहेंगे तो पदार्थों को भी काल्पनिक होने का प्रसंग अनिवार्य बन जायेगा। कैसे यह देखिये - बौद्धोंने नील-पीतादि का लाक्षणिक विरोध मान्य किया है। लाक्षणिक :- लक्षण वस्तुस्वरूप का निश्चायक होता है, लक्षण के आधार पर यानी लक्षणनिमित्तक नील-पीतादि का विरोध होता है जिसे 'लाक्षणिक' कहा 20 गया है। अभाव का लक्षण है भावप्रच्युति, इसी लिये तो नील का नीलप्रच्युति के साथ विरोध होता है, जहाँ नीलप्रच्युति होगी वहाँ पीतादि कोई अवश्य होगा, यानी पीतादि नीलप्रच्युति से व्याप्त होने के कारण, नील से पितादि का विरोध फलित होगा। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि नीलपरिच्छेदकरूप से प्रवर्त्तनेवाला प्रमाण नीलप्रच्युति का व्यवच्छेद करता हुआ एवं नीलप्रच्युतिव्याप्त पीतादि को भी व्यावृत्त करता हुआ स्वविषयभूत नीलादि का प्रकाशन करता है यह आप का अभिमत हुआ। अब 25 आप यदि भावाभाव को शशविषाण की तरह सर्वथा काल्पनिक मानेंगे तो उक्त लाक्षणिक विरोध कैसे युक्तिसंगत होगा ? भावाभाव सर्वथा शशविषाणतुल्य होगा तो भावाभाव के साथ भावविरुद्धता एवं उस की पीतादिव्यापकता प्रमाणविषय नहीं हो सकती (शशशृंग के साथ भावविरुद्धतादि जैसे प्रमाणविषय नहीं होती।) फिर उस का निश्चय भी कैसे किया जा सकेगा, जिस से कि व्यावृत्तरूप से परिच्छेद के द्वारा वस्तु की प्रतिनियतपदार्थव्यवस्था का हेतुत्व कहा जा सके ?! 30 [विनाश में मोगर आदि जन्यता की निर्बाध सिद्धि ] विनाश में मोगरप्रहार जन्यत्व असिद्ध नहीं है। लोकाभिप्राय से (सार्वजनीन प्रतीति से) यह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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