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________________ खण्ड-३, गाथा-६ १८५ निमित्तात् सदृशापरापरोत्पत्तिविभ्रमाद् यथानुभवं विकल्पोत्पत्तिर्न भवेत्, न वाऽसदृशेष्वपि समानविकल्पजनकेषु दर्शनद्वारेण सदृशव्यवहारहेतुत्वमिति वक्तव्यम्, नीलादिविशेषाणामप्यभावप्रसक्तेः । यथा हि – परमार्थतोऽसदृशा अपि तथाभूतविकल्पोत्पादकदर्शनहेतवः सदृशव्यवहारभाजो भावाः तथा स्वयमनीलादिस्वभावा अपि नीलादिविकल्पोत्पादकदर्शननिमित्ततया नीलादिव्यवहारभाक्त्वं प्रतिपत्स्यन्ते इति तेषामपि निःस्वभावताप्रसक्तिः । अत एव 'प्रतिक्षणं भिन्नस्वभावान् भावान् पश्यन्नपि विषमज्ञ इव नावधारयति' [ ] इत्यभिधानं न 5 युक्तम्, स्वयमद्वयस्वरूपाणामन्तर्द्वयनिर्भासादर्शनाद् बहिरप्यनाविलाक्षविज्ञानानां खण्डश: प्रतिभासोपलब्धिः याथात्म्येनैवार्थप्रतिभासोऽनुभवैरित्येतस्याऽसिद्धेः विकल्पवशेन चाध्यक्षस्य प्रामाण्यव्यवस्था अन्यथा दानहिंसाविरतचेतसामपि स्वर्गप्रापणशक्तेरध्यक्षत एवाधिगमव्यवस्थितेर्न तत्र विप्रतिपत्तिरिति तद्व्युदासार्थमनुमानप्रवर्त्तनम् शास्त्रविरचनं वा वैयर्थ्यमनुभवेत् । ३) तक पाठशुद्धि नहीं है - इस लिए उस का विवेचन दुष्कर है, स्थानाशून्यार्थ यहाँ प्रयास किया 10 जाता है - __सदृश अपर-अपरोत्पत्ति से स्थिरता के विभ्रम की जो बात कही वह भी अनुचित है क्योंकि क्षणों से सादृश्य अभिन्न होगा तो भिन्न भिन्न सादृश्य से एक-स्थिर बुद्धि नहीं हो सकेगी। यदि भाव से भिन्न प्रतिव्यक्ति अनुषक्त एक सादृश्य मानेंगे तो आपने जो दोष एक सामान्य में लगाये हैं वे सब सादृश्य के सिर पर चिपक जायेंगे। अतः स्थिर बुद्धि के निमित्त रूप से सादृश्य का सम्भव 15 नहीं है। अतः उस के निमित्त से सदृश नये नये क्षणों का उद्भव, उस से स्थैर्य का विभ्रम एवं क्षणिकत्व के अनुभव से क्षणिकत्व विकल्प की अनुत्पत्ति का निरूपण यथार्थ नहीं है। तथा, पूर्वोत्तर असदृश किन्तु दर्शन के द्वारा समानविकल्प के जनकभावों में सदृशव्यवहार हेतुत्व रूप सादृश्य भी नहीं घट सकता, क्योंकि इस तरह तो नीलादि पृथक् पृथक् भावों का भी लोप प्रसक्त होगा। देखिये - वास्तव में पूर्वोत्तर भाव असदृश होने पर भी समानताविकल्पों के जनक दर्शन-कारण भाव 20 सदृशव्यवहारशाली हो सकते हैं वैसे ही स्वयं अनीलादिस्वभाववाले भाव भी नीलादिविकल्पों के जनक दर्शननिमित्तभूत हो कर नीलादिव्यवहारकारी बन सकेंगे, फलतः नीलादि में अनीलस्वभावता या निःस्वभावता की आपत्ति होगी। इसी लिये यह कथन भी युक्तिबाह्य है कि - ‘प्रतिक्षण पृथक्-पृथक स्वभाव वाले भावों को देखता हुआ भी दृष्टा भेददी की तरह (पृथक स्वरूप से) अवधारण (= निश्चय) नहीं कर सकता।' – युक्ति, एकविषयक ज्ञान अन्यविषय का निश्चय नहीं कर सकता, इत्यादि 25 अनेक, पहले कही गयी हैं। ‘अनुभवों से हरहमेश यथार्थ वस्तुप्रतिभास ही होता है' ऐसा मानना गलत (असिद्ध) है क्योंकि स्वयं एकात्मक होनेवाली वस्तु का भी भीतर में द्वैतप्रतिभास होता है, एवं बाहर निर्मल इन्द्रिय विज्ञानशाली को भी अखण्ड नहीं, खण्ड खण्ड प्रतिभास होता है। सच तो यह है कि आखिर प्रत्यक्ष के प्रामाण्य की व्यवस्था का आधार तो विकल्प ही है। अन्यथा दानचित्तवाले और हिंसाविरतचित्तवाले को स्वर्ग प्राप्ति करानेवाली शक्ति का भान प्रत्यक्ष से सिद्ध हो जाने पर 30 उस विषय में जो विवाद है उस को स्थान ही नहीं रहेगा। फिर उस विवाद को मिटाने के लिए अनुमानप्रयोग अथवा ग्रन्थरचना नितान्त व्यर्थ हो जायेंगे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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