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________________ १८४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ स्थिरस्थूररूपतया तेषां तत्र प्रतिभाससंवेदनात् । न चाऽन्यादृग्भूतप्रतिभासोऽन्यादृग्भूतार्थव्यवस्थापक: अतिप्रसंगात् । न च प्रतिक्षणं भिन्नस्वभावानुभवेऽपि सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भात् यथानुभवव्यवसायानुत्पत्तेः क्षणक्षयानुभवेऽपि स्थिर-स्थूररूपाध्यवसाय इति वक्तव्यम्, प्रमाणाभावात् । न चान्यादृग्भूतार्थानुभवेऽन्यादृग्भूतार्थनिश्चयोत्पत्तिकल्पना ज्यायसी, नीलानुभवेऽपि पीतनिश्चयोत्पत्तिकल्पनाया: सर्वत्र प्रतिनियतार्थव्यवस्थितेरभावप्रसक्तेः । [??न च भावव्यतिरिक्तस्य वा सादृश्यस्यान्यथा सामान्यपक्षोक्तदोषस्यात्रापि प्रसक्तेः सम्भवः यतो जाता है, इस में कोई उपचार करना नहीं पड़ता। अतः द्रव्यार्थिक नय बिना किसी उपचार से द्रव्यनिक्षेप को मान्य करता है। [ द्रव्यार्थिकनय से क्षणभंगवाद का विस्तृत निरसन प्रारम्भ ] यहाँ क्षणिकवादी के साथ चर्चा का प्रारम्भ हो रहा है - 10 क्षणवादी :- भाववृन्द क्षण-क्षण में नाशग्रस्त होते हैं अतः उस में नित्यता (स्थायिता) का सम्भव न होने से यह स्थायिद्रव्यवादी द्रव्यार्थिक निक्षेप सत्य नहीं है। द्रव्यवादी :- ऐसा नहीं बोलना, क्योंकि निरन्वयनाशवाद को किसी प्रमाण का समर्थन नहीं है। अन्वय = हेतु, बिना हेतु ही नाश होता है इस लिये क्षणोत्पत्ति के बाद नाश में एक क्षण का । भी विलम्ब नहीं होता। बताईए - क्षणभंगग्राही प्रमाण कौन सा है ? प्रत्यक्ष या अनुमान ? इन 15 दो प्रमाणों से अधिक कोई प्रमाण बौद्ध विद्वानों को मान्य नहीं है। प्रत्यक्ष प्रमाण भावों की क्षणभंगुरता का परिच्छेद करने के लिये सक्षम नहीं है। प्रत्यक्ष में कभी ऐसा नहीं दिखता कि सभी भाव प्रतिक्षण उत्पत्ति-विनाशप्रतियोगी हैं। पदार्थों की ऐसी कोई मात्रा (व्यक्तिप्रकार) दिखती नहीं जो प्रतिक्षण तूट तूट कर शून्यता ओढ लेती हो। उलटे, प्रत्यक्ष में भासमान सभी मात्रा स्थिर एवं स्थूलावयवीरूप से ही संविदित होती है। भाव को एक प्रकार से भासित करनेवाला प्रतिभास अन्यप्रकारापन्न अर्थ 20 का निश्चायक नहीं बन सकता, अन्यथा नील प्रतिभास पीत का निश्चायक बन जाने का अनिष्ट होगा। क्षणवादी :- दर्शन में क्षण-क्षण का स्वभाव पृथक-पृथकरूप से अनुभूत होता ही है, किन्तु दर्शनानुरूप निश्चय उत्पन्न नहीं होता (मतलब, विकल्प क्षणक्षयित्व का प्रदर्शन नहीं करता) उस का हेतु यह है कि अहर्निश विवक्षित पदार्थ के तुल्य नये नये क्षणों की निरन्तर उत्पत्ति से स्थिरत्व की छलना होती ही रहती है। इस तरह, क्षणक्षय का अनुभव (= दर्शन या निर्विकल्प बोध) होता है किन्तु 25 तथाप्रकार सविकल्प न होने से तथा उक्त छलना के कारण स्थिर-स्थूलावयवी का अध्यवसाय उदित होता है। द्रव्यवादी :- ऐसा नहीं बोल सकते क्योंकि उक्त बचाव में कोई प्रमाण नहीं है। ‘अनुभव यदि एकप्रकार का होता है और अन्य प्रकार के निश्चय का उदय होता है' इस कल्पना में कुछ तथ्यांश नहीं है। नील का अनुभव (निर्विकल्प) होने के बाद पीत के निश्चय की उत्पत्ति की कल्पना कर 30 लेंगे तो नियत प्रामाणिक अर्थ व्यवस्था का दुष्काल ही पडेगा। तब अनुभव और निश्चय का कभी मेल ही नहीं बैठेगा। [भूतपूर्वसम्पादकों के अभिप्राय से न च भावव्यति... (पृ.१८४ पं.५) से मध्यक्षावसेया। (१८७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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