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________________ 15 १८२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ 'द्रव्य-पर्यायरूपमुभयमपि परस्परविविक्तमेकत्र विद्यते' इत्यभिप्रायो नैगमोऽशुद्धद्रव्यास्तिकप्रकृतिः।। [शब्दस्य द्रव्यार्थनिक्षेपरूपताया उपसंहारः ] कृतकत्वेऽपि शब्दस्य यत्र यत्र सङ्केतद्वारेण शब्दो नियुज्यते तत्र तत्र प्रतिपादकत्वेन प्रवर्त्तते इति द्रव्यसाधाद् द्रव्यार्थिकनिक्षेपः शब्दः । य(?त)था द्रव्यार्थताया अपि सर्वत्राभ्युपगमाद् वाच्य-वाचकयो5 नित्यत्वात् तत्सम्बन्धस्यापि नित्यता समस्त्येव, सङ्केतश्च तदभिव्यक्तिरिति द्रव्यार्थिकनिक्षेपः शब्दः। [ स्थापनाया द्रव्यार्थिक निक्षेपरूपता प्रदर्शनम् ] संकेतभिधानस्यार्थस्य प्रतिकृतिप्रकल्पना स्थापना इति यद् वस्तु सद्भूताकारेण स्थाप्यत इति णिजन्तात् कर्मणि षु(?यु)प्रत्ययः?। सापि द्रव्यार्थिकस्य निक्षेपः मुख्य-प्रतिनिधिविभागाभावात् सदविशेषात् सर्वस्य मुख्यार्थक्रियाक(?)करणात् अन्यथोपयाचितादेस्ततोऽसिद्धिप्रसक्ते: तन्निमित्तद्रव्यादिविनियोग10 व्यवहाराभावप्रसक्तेश्च मुख्यपदार्थरूपत्वात् स्थापनाया द्रव्यार्थत्वात्। अथवा अध्यवसायोपरचितमेव स्थापनायास्तदेकत्वम् न पुनर्वास्तवम् अन्यथा मुख्यप्रतिनिधिविभागाभावप्रसक्तेस्तद्रूपोपलक्षकत्वाभावप्रसक्तेश्च । नैगम नय भी अशुद्ध द्रव्यास्तिक स्वभावी ही है क्योंकि उसकी मान्यता ऐसी है परस्पर पृथक् द्रव्य-पर्याय दोनों ही एक वस्तु में रहनेवाले हैं। (यहाँ पर्याय का भी स्वीकार होने के कारण यह नय अशुद्ध द्रव्यास्तिक समझना)। [शब्द(= नाम) की द्रव्यार्थनिक्षेपरूपता का उपसंहार ] पर्यायास्तिक मतानुसार शब्द कृतक (उत्पत्तिशील) होने से जिस जिस अर्थ के अभिप्राय से वक्ता संकेत द्वारा शब्दनियोग करता है उस अर्थ का निरूपण वह शब्द करता है। वह शब्द सिर्फ पर्यायरूप ही नहीं होता द्रव्यरूप भी होता है, अतः द्रव्य के साधर्म्य से शब्द को द्रव्यार्थिक(मान्य) निक्षेप कहना उचित है। तथा अनेकान्तवाद में तो सभी अभिलाप्य वस्तुओं में द्रव्यार्थता मान्य होने से वाच्य-वाचक 20 (अर्थ-शब्द) को नित्य माना गया है अत एव उन के सम्बन्ध में भी नित्यत्व अक्षुण्ण है। 'तब संकेत की क्या जरूर ?' प्रश्न का उत्तर यह है कि वह तो सिर्फ अभिव्यक्ति है। द्रव्यार्थिक निक्षेपरूप शब्द (नाम) है यह प्रतिपादन समाप्त। स्थापनानिक्षेप का प्रतिपादन 1 संकेतशाली नाम के वाच्यार्थ की प्रतिकृति (चित्र, छाया, शिल्प मूर्ति-प्रतिमा इत्यादि) की रचना25 यह है स्थापनानिक्षेप । स्थापनाशब्द की व्याख्या - ‘सद्भूत यानी तुल्य आकार से प्रेरित हो कर जिस (अमुख्य) पदार्थ को (चित्रादि को, मुख वस्तु रूप से) स्थापित यानी गृहीत (=ज्ञात) किया जाता है' यहाँ प्रेरकप्रत्ययान्त स्था(स्थाप) धातु को कर्म-अर्थ में 'यु' प्रत्यय किया गया है। स्थापना भी नाम की तरह द्रव्यार्थिक मान्य होने के अनेक हेतु हैं - १ इस नय में यह मुख्य वस्तु और यह उस की प्रतिनिधिभूत वस्तु – ऐसे विभाग को नहीं माना जाता, २, क्योंकि दोनों ‘सद्' रूप से तुल्य है। ३, प्रत्येक वस्तु 30 अपनी अपनी मुख्य अर्थक्रियाओं को करते हैं। ४, अगर स्थापना मुख्य अर्थक्रिया नहीं कर सकती ऐसा मानेंगे तो देवताओं की प्रतिष्ठित मूर्ति-प्रतिमा के सामने (पूजादि करनेवाले को) मानता माननेवाले को १. ‘ण्यासश्रन्थो युच्' (पा. ३-३-१०७), 'णि-वेत्त्यासश्रन्थघट्टवन्देरनः' (सिद्धहेम.५-३-१११)। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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