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________________ खण्ड - ३, गाथा - ६ एतेऽपीति भावनिक्षेपवादी पर्यायास्तिक: । अयुक्तवादिता च नित्यवस्तुनः शब्दादेः कस्यचिदसम्भवादिति प्रतिपादितत्वादनवगन्तव्या ( : ? ) । अनवस्थादूषणमपि कृतकसम्बन्धपक्षप्रतिपादितमयुक्तमेव 'अयम्' इत्यादेः शब्दस्यानादिव्यवहारपरम्परातः सिद्धसम्बन्धत्वात् तेनाऽनवगतसम्बन्धस्य घटादिशब्दस्य संकेतकरणाद् अकृतसम्बन्धवादिनोऽपि चानवस्थादोषस्तुल्य एव । तथाहि-- अनभिव्यक्तसम्बन्धस्वाभिव्यक्तसम्बन्धेन शब्देन यदि सम्बन्धाभिव्यक्ति: क्रियते तदा तस्यापि सम्बन्धाभिव्यक्तिरन्यतोऽभिव्यक्तसम्बन्धादिति कथं 5 नानवस्थादोषस्तुल्यः ? यदि पुनः कस्यचित् स्वत एव सम्बन्धाभिव्यक्ति: अपरस्यापि तथैवास्तु इति संकेतक्रिया व्यर्था । शब्दविभागाभ्युपगमे चाऽस्मन्मतानुप्रवेशः प्रदर्शितन्यायेन । अनुत्पत्तिक (नित्य) ऐसा विरुद्ध अर्थ लक्षणा से लिया जाता है । (जैसे उष्ट्र के लिये अहोरूपम् कहा जाय तब 'रूप' शब्द का कद्रूपता अर्थ लिया जाता है ।) [ नित्यवाद - अनित्यवाद दोनों को तुल्य अनवस्था दोष नित्यसम्बन्ध वादी अनित्यसम्बन्ध वादी के सिर पर एक अनवस्था दोष लगाते हैं 'अयं घटः' यहाँ इदम् (अयम् ) पद का पुरोवर्त्तीि अर्थ के साथ सम्बन्ध ज्ञात है, 'घट' पद का उस के अर्थ के साथ सम्बन्ध अज्ञात है, इस स्थिति में अज्ञातसम्बन्धवाले घटादि अर्थ का ( घटादि पद के साथ) सम्बन्ध जिस शब्द से जोडा जाता है यानी ज्ञातसम्बन्ध वाले जिस 'अयम्' शब्द से अज्ञात सम्बन्ध जोड़ा जाता है, उस ज्ञात सम्बन्ध को भी पहले तो पुरोवर्त्तीि अर्थ के साथ जोडना पडेगा, 15 वह किससे जोडेंगे ? यदि अन्य ज्ञातसम्बन्ध ( वाले शब्द) से जोडेंगे तो उस सम्बन्ध को जोडने के लिये और एक सम्बन्ध, उसके लिये भी अन्य एक सम्बन्ध.. इस तरह अनवस्था दोष होगा अनित्यसम्बन्धवादी के मत में यह दोष लगता है, किन्तु हमारे ( मीमांसक) नित्यसम्बन्धवादी के मत में ऐसा कोई दोष लग सकता नहीं । इस मीमांसक (अशुद्धद्रव्यास्तिकनय ) मत के प्रति भावनिक्षेपवादी पर्यायास्तिकनयवादी कहता है कि ये नित्यसम्बन्धवादी अतथ्यवादी हैं । - - Jain Educationa International १८१ For Personal and Private Use Only — - अतथ्यवादी कहने का हेतु यह है कि पहले ही हम सिद्ध कर चुके हैं कि विश्व में किसी नित्य पदार्थ या नित्य शब्दादि की सत्ता ही नहीं है । फिर नित्यसम्बन्ध भी कैसे ? अनित्यसम्बन्धपक्ष में जो अनवस्थादूषण प्रदर्शित किया है वह भी गलत है । कारण:- 'अयम्' इत्यादि शब्दों का सम्बन्ध अनादिशब्दव्यवहारपरम्परा से सुप्रसिद्ध है । मीमांसक को भी अज्ञातसम्बन्धवाले घटादि शब्द का घटादि अर्थ में संकेत तो करना ही पडेगा, फलतः नित्यसम्बन्धवादी को भी पूर्वोक्त प्रकार से अनवस्था दोष 25 समान क्यों नहीं होगा ? यदि इस दोष से बचने के लिये कहा जाय कि परम्परा में कोई एक सम्बन्ध स्वयमेव अभिव्यक्त हो जायेगा, तो अनित्यशब्दवादी हमारे मत से भी अनवस्थादोष निवारण आप की तरह हो जायेगा, फिर व्यर्थ संकेत-करणक्रिया का कष्ट क्यों ? ( शब्दार्थसम्बन्ध तभी नित्य हो सकता है जब शब्द को नित्य माना जाय किन्तु नित्य शब्द में संकेतकरण व्यर्थ है नहीं है) यदि शब्द में भी कालविभाग से विभाग (यानी भेद, अर्थात् अनित्यता) माना जाय तो 30 पूर्वप्रदर्शित युक्ति से संकेतकरण करने पर तो हमारे मत में ही प्रवेश कर लेना होगा । शक्य 10 20 www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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