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________________ १७४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ शब्दाख्यं चेत् कारणमविलम्बम् अपरस्यापेक्षणीयस्याभावात् किं न तानि युगपदुदयमनुभवेयुः ? अपि च, एकस्वभावाच्छब्दब्रह्मणोऽन्यस्य भावान्तरस्योत्पत्तिर्यद्यङ्गीक्रियते तदा ‘अर्थरूपेण तद् ब्रह्म विवृत्तम्' (१६८-६) इत्येतद् न सिद्धिमासादयेत्। न ततोऽर्थान्तरोत्पादे तत्स्वभावमनासादयतोऽन्यस्य ताद्रूप्येण विवर्तो युक्तिसंगत इति सर्वथापि प्रतिज्ञार्थो न घटते। 'शब्दानुस्यूतत्वात्' इति हेतुश्चासिद्धः, न यतः परमार्थेनैकरूपानुगमो भावानां सम्भवति, स्वस्वभावव्यवस्थिततया सजातीयव्यावृत्तस्वरूपत्वात्तेषाम् । विजातीयव्यावृत्तिकृतं त्वेकाकारानुस्यूतत्वं कल्पनाशिल्पिनिर्मितमेषाम् घट-शरावोदञ्चनादिषु परमार्थतो भिन्नेष्वपि अमृदात्मकपदार्थव्यावृत्तिकृतमृद्रूपानुस्यूतिवत् । न च नीलादिनां कल्पनाविरचितमपि शब्दाकारानुस्यूतत्वमस्ति, नील-पीतादिषु प्रतिभासं बिभ्राणेषु शब्दानुस्यूतत्वस्य कल्पनयाप्यनुल्लेखात्। तत् कथं नासिद्धो हेतु: ? [ अविभक्तब्रह्मतत्त्वोपपादनं तत्प्रतिविधानं च ] 10 अथाऽविभक्तमेव सदा ब्रह्मात्मकं तत्त्वम् न तस्य परमार्थतः परिणामः येनैकदेशत्वं नीलादेरेकाकारं घट-पटादि कार्यों का उदय एक साथ नहीं, क्रमिक होता है यह सुप्रसिद्ध है, शब्दब्रह्म में तो नित्य होने से क्रम ही नहीं है तब उस से क्रमिक कार्यों की उत्पत्ति की आशा कैसे रखी जाय ? कार्यों की उत्पत्ति में जो विलम्ब होता है उस का मूल है कारणों की विकलता। शब्दरूप कारण की विकलता तो है नहीं, अतः उस की उपस्थिति में विलम्ब भी संभव नहीं, फिर अन्य किसी की अपेक्षा भी 15 नहीं है तो प्रश्न खडा होगा कि उस के सभी कार्य एक साथ क्यों उदयापन्न नहीं होंगे ? उपरांत एक ही स्वभाव वाले शब्दब्रह्म से अन्य अन्य भावों की उत्पत्ति मानी जायेगी तो पहले जो वाक्यपदीय (१-१) का उद्धरण दे कर कहा था कि 'शब्दब्रह्म अर्थरूप से विवर्त्तापन्न होता है' यह संगत नहीं होगा। कारण :- अन्य अन्य भावों की ब्रह्म से व्यावृत्ति मानेंगे तो प्रत्येक में स्वभाव भेद भी मानना पडेगा, तब अन्यभाव के उत्पादकाल में ब्रह्मस्वभाव को प्राप्त न होनेवाला अन्य भाव 20 का ताद्रूप्यप्रयुक्त विवर्त्त युक्तियुक्त नहीं हो सकता। अतः 'जगत् शब्दमय है' यह प्रतिज्ञा लेशमात्र संगत नहीं है। [शब्दाकारानुविद्धत्व हेतु में असिद्धि दोष ] पहले अनुमानप्रयोग में जो ‘शब्दाकारानुविद्धत्व' हेतु (१६९-२५) कहा था वह भी असिद्ध है। कारण :- पदार्थों में वस्तुतः किसी एक (शब्द या सामान्य) की अनुवृत्ति सम्भवित नहीं है क्योंकि 25 सभी भाव अपने अपने स्वभाव में स्वतः ही तन्निष्ठ होने से सजातीयों से भी स्वतः ही व्यावृत्त स्वरूपवाले हैं। तथा उन भावों में विजातीयव्यावृत्तिप्रयुक्त एकाकारानुवृत्ति तो कल्पना स्थपति रचित है (वास्तव नहीं है) जैसे कि परमार्थ से भिन्न भिन्न घट-शराव-उदंच आदि में (बौद्धमत से) अमृद्व्यावृत्तिप्रयुक्त मिट्टीरूपता की अनुवृत्ति । (अतद्व्यावृत्तिरूप सामान्य तुच्छ है इस लिये)। जब नीलादि बाह्यभावों में उक्त ढंग से एकाकारानुवृत्ति घटती नहीं, तो कल्पनारचित शब्दाकारानुवृत्ति के घटने की 30 तो बात ही कहाँ ! अरे ! दर्शन में भासित होनेवाले नील-पीतादि में कल्पनातरंग से भी शब्दाकार की अनुवृत्ति का उल्लेख प्रतीत नहीं होता, तब ‘शब्दाकारानुविद्धत्व' हेतु असिद्ध क्यों नहीं होगा ? ब्रह्मवादी :- ब्रह्मात्मक तत्त्व सदैव अविभक्त (एक-अखंड) ही रहता है, उस का कोई वास्तविक परिणाम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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