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________________ 5 10 सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ यावल्लोकव्यवहार:' [ ] इति व्यवस्थितं सर्वधर्मविरहः शून्यतेति शुद्धतरपर्यायास्तिकमतावलम्बी ऋजुसूत्र एवं व्यवस्थितः । १६६ [ निक्षेपेषु द्रव्य-पर्यायनययुगलावतारः ] 'नयानुयोगद्वारवत् शेषानुयोगद्वारेष्वपि द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिको मूलव्याकरणिनी' इति दर्शयन्त्य (? कि सर्वधर्मनास्तित्व शून्यता है । ऐसी शून्यता का अतिशुद्ध पर्यायास्तिक मतावलम्बी ऋजूसूत्र नय स्वागत करता है। (अतिशुद्ध कैसे ? पर्यायास्तिक होने से पहले 'द्रव्य' को असत् ठहराया, ओर गहराई में जा कर बाह्य पर्यायों को भी असत् ठहराया, फिर नील-सुखादि ज्ञान (सविषयक ज्ञान ) पर्यायों को भी असत् ठहराया, इस तरह सर्वधर्मों को असत् ठहराया और शून्यता स्वरूप अतिशुद्ध मध्यम 15 प्रतिपद का स्वीकार किया, इस लिये यह अतिशुद्ध पर्यायवादी ऋजुसूत्रमत है | ) [ ऋजुसूत्रादि चार नयों में सौत्रान्तिकादि चार मतों का प्रवेश ] पाँचवी मूल कारिका में सूत्रकार सिद्धसेन दिवाकरसूरि ने कहा है कि शब्दादि तीन नय ऋजुसूत्र 30 [ सौत्रान्तिकादिचतुष्कस्य ऋजुसूत्रादिचतुष्केऽवतारः ] अथवा, सौत्रान्तिक- वैभाषिकौ बाह्यार्थमाश्रितौ, ऋजुसूत्र - शब्दौ यथाक्रमम् वैभाषिकेण नित्यानित्यशब्दवाच्यस्य पुद्गलस्याभ्युपगमात् शब्दनयेऽनुप्रवेशस्तस्य । बाह्यार्थप्रतिक्षेपेण विज्ञानमात्रं समभिरूढो योगाचारः । एकानेकधर्मविकलतया विज्ञानमात्रस्याप्यभावः इत्येवं भूतो = व्यवस्थितः एवम्भूतो माध्यमिक: । इति व्यवस्थितमेतत् तस्य तु शब्दादय: शाखा प्रशाखा: सूक्ष्मभेदा इति । । ५ । । ( प्रथमकाण्डे पञ्चमगाथा - व्याख्या समाप्ता) | अथवा की ही शाखा प्रशाखारूप हैं इस का स्पष्टीकरण व्याख्याकार अभयदेवसूरि दूसरे प्रकार से करते हैं क्षणिकवादी सौत्रान्तिक बाह्यार्थ मानने के कारण ऋजुसूत्र स्वरूप है। वैभाषिक भी बाह्यार्थ 20 को इस तरह मानता है कि पुद्गल शब्दवाच्य है चाहे वह शब्द नित्य हो या अनित्य । ( मतलब कि इस में अनित्य पुद्गलरूप बाह्यार्थ को अनित्य शब्द से अपोहात्मकरूप से वाच्य माननेवाले) वैभाषिक का भी शब्दनय में समावेश हुआ भी शब्दनय में प्रवेश समझ लेना विरोधी बन कर विज्ञानमात्र के ऊपर 25 में प्रविष्ट है। तथा माध्यमिक एवं ( एवं पुद्गल को नित्यशब्दवाच्य माननेवाले मीमांसक के मत का यह प्रासंगिक बात है ।) योगाचार यानी विज्ञानवादी बाह्यार्थ का अपने मत का आक्रमक ढंग से आरोहण करने के कारण समभिरूढनय एकानेकधर्मों की संगति शक्य न होने से विज्ञान का भी अभाव है इस प्रकार, भूत निश्चय कारी होने से एवम्भूतनय में माध्यमिक का प्रवेश है । निष्कर्ष (या निगमन) गया कि शब्दादि तीन नय ऋजुसूत्रनय के सूक्ष्मभेदरूप शाखाप्रशाखातुल्य हैं ।। ५ ।। पंचमकारिका की विस्तृत व्याख्या समाप्ता । ) श्री परमेश्वराय नमः ।। [ निक्षेपों में द्रव्यार्थिक- पर्यायार्थिक का अवतार ] यह सुनिश्चित हो ( पहले काण्ड की श्री दिवाकर सूरिजीने पांचवी गाथा के द्वारा ऋजुसूत्रादि चार नयों का प्रदर्शन किया छट्टी गाथा की अवतरणिका व्याख्याकार दो प्रकार से दिखा रहे हैं (१) नयस्वरूप अनुयोगद्वारों की तरह शेष (निक्षेपरूप) अनुयोगद्वारों में भी द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक Jain Educationa International — - = For Personal and Private Use Only - अब www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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