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________________ ११८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ [??न च तद्दर्शनोपरतावपि परदृशि नीलादेरवभासनात् साधारणतया ग्राह्यता दर्शनं पुनरसाधारणतया न स्वसन्तानान्तर इति ग्राहकम्, साधारणतया पदार्थपरिच्छेदासंभवात् । तथाहि- स्वदर्शने वस्तु प्रतिभातीति स्व-स्वदृष्टतया प्रतीयताम् नरान्तरदर्शनपरिच्छेदमन्तरेण तदृष्टतया कथं तत्परिकल्पना ? न हि परदृग मनन्त(?मवगमान्त)रेण तदेव(?दव)गम्यता (न च?) तस्य प्रत्येतुं शक्या। यतः (5)साधारणतया स्वसन्ततावेव 5 प्रतिभाति न सन्तानान्तरं प्रति साधारणमर्थस्य प्रकाशयति। अन्वयबलेनानुमानस्य प्रवृत्तेः तस्य च साधारण एव परिच्छेदात्, नानुमानं ‘अ(न्य)दृष्टमेवायमर्थमवगच्छति' इति एवं साधारणतां वस्तुनः प्रतिपादयति । यथा च साधारणमा(?ता)यां न किञ्चित् प्रमाणं प्रवर्तते तथा प्रतिपादितमद्वैतं निराकृर्वद्भिः। (२८५६)। ततोऽसाधारणतया बोधवन्नीलादिकमपि हृदिता ??] न च समानकालप्रतिभास()विशेषेपि चिद्रूपतया बोधो ग्राहकः, अर्थस्त्वचिद्रूपत्वाद् ग्राह्यः। यतो 10 दर्शनस्यापरोक्षात्मतैव चिद्रूपता, अपरोक्षता व्यतिरिक्तायाः चिद्रूपतायाः केनचिदप्रतिपत्तेः। सा च नीलादेरपि स्वरूपभासमानमूर्तेरस्तीति कथं न बोधात्मकता ? न च नीलादेर्बहीरूपतया प्रकाशनाद् ग्राह्यता, संविदोऽपि प्रतिवादी :- (न च...हृदिता तक पाठ अशुद्ध होने से शुद्ध विवेचन दुष्कर है) एक व्यक्ति का नील संबन्धि दर्शन क्षीण हो जाने पर भी अन्यव्यक्ति के दर्शन में वही नीलादि स्फुरित होने से मानना होगा कि नीलादि स्व-परउभयदर्शनगोचर यानी साधारण होने से उस में ग्राह्यता स्थापित होगी, 15 तथा एक व्यक्ति का दर्शन अन्यसन्तान में स्फुरित न होने से, अर्थात् असाधारण होने से वह ग्राहक बनेगा। वादी :- नहीं, नीलादि पदार्थों का अन्यव्यक्ति साधारण बोध का उदय संभव नहीं है। स्पष्टता :हर एक व्यक्ति को अपने अपने दर्शन में ही वस्तु भासित होती है, अतः सभी को स्वदृष्टतया ही प्रतीति हो सकती है। फिर अन्यव्यक्तिदर्शन के भान विना अन्यव्यक्तिदृष्टतया साधारणता की कल्पना 20 कैसे हो सकती है ? स्वदर्शन के द्वारा अन्यदर्शन के अवबोध के विना अर्थ की परदृष्टता का भान कैसे हो सकता है ? स्वसन्तान में जो वस्तु असाधारणतया ही भासित होती है उस वस्तु की अन्यसन्तान के प्रति साधारणता कैसे प्रकाशित होगी ? यदि कहें कि अनुमान से, तो जान लो कि अनुमान की प्रवृत्ति अन्वय के बल से ही होती है उस से तो साधारण यानी सामान्य (अवस्तु) का ही भान होता है स्वलक्षण का नहीं। अनुमान कभी ‘अन्य से दृष्ट ही यह दृष्टा देखता है' इस तरह की 25 साधारणता का प्रतिपादन नहीं कर सकता। दूसरे खण्ड में, साधारणता को सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण है नहीं - इस तथ्य का निदर्शन, अद्वैतवादनिरसन के प्रस्ताव में किया जा चुका है – (२८५६) अतः बोध की तरह नीलादि की प्रतीति भी असाधारणरूप से ही स्वीकारनी पडेगी। प्रतिवादी :- बोध और अर्थ दोनों का प्रतिभास समकालीन होने पर भी चिदात्मक होने से बोध ग्राहक, जड होने से अर्थ ग्राह्य होता है। 30 वादी :- नहीं, चिद्रूपता ग्राहकतारूप नहीं है किन्तु दर्शन की अपरोक्षतास्वरूप है, अपरोक्षता को छोड कर चिद्रूपता की प्रतीति किसी को भी नहीं होती। नीलादि पिण्ड भी स्वरूपतः अपरोक्षतया भासमान है, क्यों उसे भी चिदात्मक न मानें ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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