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खण्ड-३, गाथा-५
११७ न चार्थस्य प्राग्भावमन्तरेण प्रत्यक्षतानुपपत्तेस्तस्य प्राग्भावोऽनुमानेन साध्यते, प्रत्यक्ष()भावेऽनुमानस्याप्रवृत्तेः। यदि प्राग्भावोऽर्थस्य प्रत्यक्षतः सिद्ध: स्यात् तदा तत्प्रतिबद्धोत्तरकालभाविप्रत्यक्षादनुमीयते, न चाध्यक्षोदयवेलाया: प्रागर्थसत्ता सिद्धेति तत्प्रतिबद्धतया दर्शनलक्षणस्य लिङ्गस्याप्रतिपत्ते: न ततोऽप्यर्थप्राग्भावः सिध्यति।
___ न च प्रागर्थस्य प्राग्भावः सिध्यति, न च प्रागर्थसद्भावमन्तरेण नियतदेश-काल-दशापरिगतदर्शनानुदय- 5 प्रसक्तिः, स्वप्नादौ तथाभूतार्थाभावेऽपि कुतश्चिद् वासनादेनिमित्तम्(?त्तात्) प्रतिनियताकारदर्शनोदयानुभवात् अर्थस्य च नियताकारदर्शनाहेतुता। जाग्रद्दशायामपि प्राग्भाविता न सिद्धा। न च प्रागर्थसत्ताविरहे भवतोऽपि किं प्रमाणम् इति क(?व)क्तव्यम्, यतो यथा नीलविविक्ततया नीलाकारस्य परिच्छेदात् तत्र नीलरूपताऽभावः तथा परिस्फुटप्रतिभासस्य नीलाकारस्य वर्तमानतया प्रतिभासनात् तस्य पूर्वरूपताविरहः, यदि हि तत् तद्रूपं स्यात् तदा तथैवावभासेत, न ह्यन्यरूपमन्यरूपेण प्रतिभाति दर्शनस्य वैत(थ्य)प्रसंगात्। 10 न च वर्तमानप्रतिभासं नीलं पूर्वरूपतया प्रतिभातीति पूर्वरूपताविरहस्तस्य सिद्धः। यथा च पूर्वरूपतां न किञ्चिज्ज्ञानमावेदयति तथा क्षणभङ्गं साधयद्भिः प्रतिपादितमिति नेहोच्यते। तदेवं दर्शनकाले एव नीलादेरवभासनाद् न ग्राह्यता। बाद में अर्थ से सम्बद्ध उत्तरकालीन प्रत्यक्ष से प्राग्भाव की अनुमिति शक्य बनती, खेद है कि प्रत्यक्षोदयवेला के पहले अर्थसत्ता ही सिद्ध नहीं होने से उस से संबद्धतया दर्शनात्मक लिंग की लिंगरूप से प्रतीति 15 नहीं हो सकती, अतः उस से अर्थ के प्राग्भाव की सिद्धि शक्य नहीं।
[प्राग्भाव के विना भी नियतदेशादि की उपपत्ति ] अर्थ के पूर्वकाल में अर्थ का प्राग्भाव (= अस्तित्व) किसी तरह सिद्ध नहीं। अर्थ के प्राग्भाव के विना नियतदेशीय-नियतकालीन-नियतअवस्थागर्भित दर्शन का उदय कैसे होगा ऐसा आक्षेप उचित नहीं है, स्वप्नदशा में तात्त्विक अर्थ के विरह में भी पूर्व पूर्व वासना आदि किसी भी निमित्त से 20 प्रतिनियत देशादि गर्भिताकारवाले दर्शन का अनुभव सिद्ध होने से फलित होता है कि अर्थ नियताकारदर्शन का हेतु नहीं है। ऐसा मत बोलना कि जाग्रद्दशा में तो अर्थ-हेतुता है, क्योंकि यहाँ भी अर्थ की पूर्वसत्ता असिद्ध है। ऐसा बोलने का अनुचित है कि आप के मतानुसार अर्थ की पूर्वसत्ता के निषेध में कौन सा प्रमाण है ? - क्योंकि जैसे नील से पथक नीलाकार के बोध से माना जाता है कि बोध में नीलरूपता नहीं है, वैसे ही अतिस्फुटतया भासमान नीलाकार में वर्तमानता के भासित होने 25 से उस की पूर्वसत्ता का निषेध फलित हो जाता है। यदि नीलाकार में पूर्वरूपता विद्यमान होती तो
1 से उस का भान जरूर होता। कोई भी एक स्वरूप वस्तु अन्यरूप से दर्शन में ज्ञात नहीं हो सकती, यदि ज्ञात होगी तो वह दर्शन मिथ्या जाहीर होगा। वर्तमानरूप से भासमान नील में पूर्वरूपता का भान नहीं होता है इस से सिद्ध होता है कि नील में पूर्वरूपता नहीं है। पूर्वरूपता को सिद्ध करनेवाला एक भी प्रमाण नहीं है - इस तथ्य का प्रतिपादन क्षणिकवाद की सिद्धि के 30 प्रस्ताव में किया जा चुका है इसलिये यहाँ पुनरावृत्ति नहीं की जाती। तात्पर्य, दर्शनक्षण में नीलादि का ही अवभास होता है, ग्राह्य ग्राहकभाव का नहीं, अतः ग्राह्यता सत्य नहीं है।
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