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________________ खण्ड - ३, गाथा-५ १०९ ( ? बोधस्य ) च कर्तृत्वमतिप्रसङ्गतोऽयुक्तमिति प्रतिभास (मा) न ( ? ) तनुरभ्युपगन्तव्या, तथाभ्युपगमेऽपि च किंचित् (?किंस्वित्)© सा स्वरूपेण प्रतिभाति उत' तद्ग्राह्यतयेति वक्तव्यम् । प्रथमपक्षे क्रिया स्वरूपनिमग्ना प्रतिभातीति नीलम् बोधः ग्रहणक्रिया चेति त्रितयं स्वतन्त्रमाभातीति न कर्म-कर्तृ-क्रियाव्यवहृतिर्युक्तिमती । न च परस्परस्वरूपविविक्तनिर्भासादेव कर्म-कर्तृक्रियाव्यवहारः, स्तम्भादेरपि तथा परस्परव्यवहारप्रसक्तेः । अथ ग्राह्यतया क्रिया प्रतिभाति तदा तस्या अप्यपरक्रियाविषयीक्रियमाणायाः कर्मतेति निरवधि: क्रिया- 5 परम्परा प्रसज्येत । अथ क्रियान्तरमन्तरेण ग्रहणक्रियाया ग्राह्यता, नन्वेवं नीलादेरपि ग्रहणक्रियाव्यतिरेकेण स्वप्रकाशवपुषो ग्राह्यता समस्तु । तथा च नीलादीनां स्वरूपमेव प्रकाशात्मकमिति विज्ञप्तिमात्रमेव सर्वं भवेत् । अपि च बोध ( क ? ) काले यदि संवेदनक्रिया विद्यमाना तदा समानकालतया प्रतिभासनात् कथं ज्ञानस्य संवित्क्रियां प्रति कर्तृता ? न हि समानकालयोः सव्येतरगोविषाणयोरिव हेतु-फलभावः । अथ 10 बोधोत्तरकालभाविनी क्रिया तथापि यदा ज्ञानसत्ता न तदा संवित्क्रिया यदा तु संवेदनक्रिया प्रतिभाति न तदा ज्ञानप्रतिभासः इति कथं हेतु-फलभाव: ? न च पूर्वं स्वरूपेण बोध: प्रतिभातः पश्चाद् नयनादि - और बोध कर्त्ता है, क्योंकि परोक्ष ग्रहण क्रिया इस से उलटी भी हो सकती है नीलादि कर्त्ता और बोध उस का कर्म तो यह अनिष्ट प्रसक्त होगा । अतः ग्रहणक्रिया को यदि प्रत्यक्ष में स्फुरायमान मानेंगे तो यहाँ दो विकल्प वह स्वरूप से स्फुरायमान होगी या ग्राह्यरूप से ? प्रथम पक्ष में तो अब 15 स्वतन्त्र स्वरूप से तीन पदार्थों का भासन होगा नील, बोध और ग्रहण क्रिया, मतलब कि स्वतन्त्र भासमान तीनों में यह कर्त्ता यह कर्म और यह क्रिया ऐसा व्यवहार अयुक्त फलित होगा । जहाँ अनेक पदार्थ परस्पर पृथक् पृथक् स्वरूप से भासित होते हैं वहाँ कर्म-कर्त्ता- क्रिया का व्यवहार युक्तियुक्त नहीं । युक्तियुक्त मानेंगे तो स्वतन्त्र पृथक् भासमान स्तम्भ - कुम्भादि में भी वैसा व्यवहार प्रसक्त होगा । bयदि स्वरूप से नहीं, ग्राह्यरूप से क्रिया भासित होने का मानेंगे तो ग्राह्य होने से वह भी 20 अन्य क्रिया का विषय बनती हुयी कर्मतापन्न हो जायेगी । वह दूसरी क्रिया भी ग्राह्यरूप से भासि होगी, अतः वह भी अन्य क्रिया का विषय बनती हुई कर्मतापन्न होगी इस प्रकार अन्य अन्य क्रियाओं की कल्पना का अन्त ही नहीं होगा । यदि अनवस्था से बचने के लिये अन्यक्रिया से निरपेक्ष ही प्रथम ग्रहणक्रिया की ग्राह्यता (यानी स्वतः प्रकाशता ) मान लेंगे तब तो उसी प्रकार नीलादि को भी ग्रहणक्रिया से निरपेक्ष ग्राह्यता यानी स्वप्रकाश पिण्डात्मक मान लो, अतः स्पष्ट फलित हो जायेगा 25 कि नीलादि पदार्थ भी प्रकाशात्मक स्वरूप ही है अतः वस्तुमात्र विज्ञप्तिस्वरूप सिद्ध हुई । [ बोध एवं संवेदनक्रिया में कारण-कार्यभाव असंगत ] यह भी सोचना चाहिये कि ज्ञान समानकाल में यदि संवेदनक्रिया ( = ग्रहणक्रिया) सत्ता में है तो समानकाल में ही उस का प्रतिभास होने से, ऐसा कैसे हो सकता है कि ज्ञान संवेदन क्रिया का कर्तृ बने ? दायें-बायें गोशृंग समानकालीन होते हैं तो उन में कारण-कार्यभाव नहीं होता । कदाचित् 30 ज्ञान के उत्तरकाल में ज्ञानजन्य संवेदनक्रिया सत्ता में हो, फिर भी जब ज्ञान की सत्ता है उस क्षण में संवेदन क्रिया भासित नहीं होती, जब संवेदन क्रिया है तब ज्ञान की प्रतिभास नहीं होता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - - www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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