SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड-३, गाथा-५ किञ्च, तदा(था)संवेदनं नीलादीनामभावसाधनत्वेनोपन्यस्यते उत ज्ञानात्मकताप्रसाधकत्वेन ? यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः हेतोविरुद्धत्वप्रसक्तेः, उपलब्धेः सत्तया व्याप्तत्वात्। न ह्यसदुपलभ्यते तथाभ्युपगमे वा ज्ञप्तावप्यसत्त्वप्रसक्तिः। न चाऽसतोऽनुपलम्भे द्विचन्द्रादेरनुपलब्धिप्रसक्तिः, तस्यापि सत्तायोगित्वप्रतिपादनात् । यदि वा संवेदनं सति ज्ञानेऽसति च चन्द्रद्वये उपलब्धमित्यनैकान्तिकमस्तु। अथ ज्ञानात्मकता तथासंवेदनात् साध्यते, तत्रापि वक्तव्यम्- किं ज्ञानात्मकत्वेन नीलादेः संवेदनम् उत व्यतिरिक्ततया ? प्रथमपक्षे 5 ज्ञानात्मकं संवेदनं नीलादेर्हेतुः स चाध्यक्षसिद्धोऽभ्युपगन्तव्यः इति नापरं साध्यमस्ति यदर्थं हेतुः स्यात् । द्वितीयपक्षेऽपि हेतुर्विरुद्धः भिन्नरूपं हि संवेदनं भेदमेव साधयति नैकत्वम् अन्यथा भेदोपरतिप्रसक्तेः। तदयमपि हेतुः न युक्तः। इति न कुतश्चित् विज्ञप्तिमात्रसिद्धिः। (पूर्वपक्ष समाप्त) [विज्ञानवादियोगाचारमतेन विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि :- उत्तरपक्षः ] अत्र प्रतिविदधति :- यत् तावदुक्तम् (९६-३) – ‘कथं प्रत्यक्षप्रतीतवपुषां नीलादीनामभावः साधयितुं 10 व्याप्तिसम्बन्ध के विरह में वह भी साध्यसिद्धि के लिये सक्षम नहीं। उपरांत, पहले जो तथासंवेदन को हेतु कहा है वह क्या है ? नीलादि के अभाव की सिद्धि के लिये हेतुरूप से उस को पेश किया है या ज्ञानात्मकताप्रसाधक के रूप में ? पहला पक्ष युक्त नहीं, क्योंकि हेतु में विरोध दोष है। तथासंवेदन तो नीलाभाव के बदले नीलादि को ही सिद्ध करते हैं, क्योंकि नीलादि की उपलब्धि होती है। हमेशा वस्तु की उपलब्धि वस्तु की सत्ता से व्याप्त होती है, असत् की कभी उपलब्धि नहीं होती। यदि असत की उपलब्धि होती हो तो विज्ञान की उपलब्धि होती है इस लिये विज्ञान को भी असत् मानना होगा। यदि कहें कि - ‘असत का उपलम्भ नहीं मानेंगे तो असत चन्द्रयुगल की उपलब्धि नहीं हो पायेगी' - तो सुन लो कि हमने तो पहले उसमें भी सत्तायोग का समर्थन कर दिखाया है। अथवा संवेदन हेतु में अनैकान्तिक दोष का स्वीकार कर लो क्योंकि संवेदन तो अब आप के मत से ज्ञानादि सत् और चन्द्रयुगल असत् दोनों का समानरूप से होता है, तब सिर्फ अर्थाभाव या ज्ञानात्मकता की सिद्धि 20 कैसे करेंगे ? दूसरा विकल्प :- तथा संवेदन हेतु से ज्ञानात्मकता की सिद्धि करेंगे - तो यहाँ प्रश्न होगा कि नीलादि का ज्ञानात्मकतारूप से संवेदन (हेतु) मानेंगे या नीलादिभिन्नरूप से मानेंगे ? प्रथम पक्ष में ज्ञानात्मक संवेदन ही हेतु है जो प्रत्यक्षसिद्ध है और ज्ञानात्मकता से अन्य कोई साध्य नहीं है जिस के लिये हेतुप्रयोग की जरूर बचे। द्वितीय पक्ष में, हेतु में विरोध दोष आयेगा - नीलादि का भिन्नरूप से संवेदन यह हेतु अभिन्नरूपता साध्य को कैसे सिद्ध करेगा ? भेद को ही सिद्ध कर 25 सकता है एकत्व को नहीं, अन्यथा भिन्नरूप से संवेदन सर्वत्र एकत्व को ही सिद्ध करता रहेगा तब भेदवार्ता का ही लोप हो जायेगा। सारांश, तथासंवेदन या संवेदनसामान्य कोई भी हेतु निर्दोष नहीं है तो विज्ञानमात्र की सिद्धि कैसे होगी ? (विज्ञानवाद के विरुद्ध पूर्वपक्ष समाप्त)। [बाह्यार्थवादी के सामने विज्ञानवादी का उत्तरपक्ष ] बाह्यार्थवादीनें अपना पक्ष प्रस्तुत किया, अब उस के प्रति विज्ञानवादी विस्तार से प्रत्युत्तर करते 30 बाह्यार्थवादीने जो यह कहा था (९६-१७) - प्रत्यक्षदृष्ट पिण्डात्मक नीलादि बाह्यार्थ का अभाव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy