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________________ खण्ड-३, गाथा-५ एवंभूतः क्रियाभेदाद् भिन्नं प्रशाखात: प्रतिशाखामिव सूक्ष्मतममधिगच्छति, एवं बाह्यार्थभ्युपगमपरः शब्दसमभिरूद्वैवंभूतभेदवानवगन्तव्यः । [ऋजुसूत्रव्याख्यान्तरे विज्ञप्तिवादसिद्धये प्रथमं पूर्वपक्षः ] अथवा 'ऋजु = बाह्यापेक्षया ग्राहक-संवित्तिभेदविकलमविभागं बुद्धिस्वरूपम् अकुटिलं सूत्रयति' इति ऋजुसूत्रः शुद्धः पर्यायास्तिकः।। 5 ननु किमविभागबुद्धिस्वरूपावेदकप्रमाणसद्भावतो विज्ञप्तिमात्रमभ्युपगम्यते, Bआहोस्विदर्थसद्भावबाधकप्रमाणसङ्गतेरिति वक्तव्यम्। तत्र Aयद्याद्यः पक्ष: स न युक्तः, यतस्तथाभूतविज्ञप्तिमात्रोपग्राहक प्रत्यक्ष वा तद् भवेत् अनुमानं वा ? प्रमाणान्तरस्य सौगतैरनभ्युपगमात् । तत्र न तावत् प्रत्यक्षं 'अर्थसंस्पर्शरहितं विज्ञप्तिमात्रमेव' इत्यधिगन्तुं समर्थम् अर्थाभावनिश्चयमन्तरेण 'विज्ञप्तिमात्रमेव' इत्यवधारकहा जानेवाला कभी सो गया हो तब भी समभिरूढ को वह पाचकतया मान्य है, ऐश्वर्यभोगस्वरूप 10 इन्दन न करने वाला भी इन्द्रतया मान्य है। अब एवंभूत नय का अभिप्रायः - प्रशाखा से आगे प्रतिशाखा की तरह अतिसूक्ष्मदृष्टिपात करता हुआ कहता है – इन्द्रशब्दसूचित इन्दनक्रिया-अनुभव के काल में ही ‘एवं' (यानी) शब्दसूचितक्रियास्थिति में 'भूत' यानी आविष्ट हो तभी ‘इन्द्र' कहा जायेगा। वर्ना ‘इन्द्र' नहीं। इस प्रकार एवंभूत नय क्रियाभेद से, अर्थात् क्रियावेशस्थिति - क्रियावेशाभावस्थिति में भी वस्तुभेद स्वीकारता है। 15 पर्यायनय की इस प्रकार व्याख्या करने पर ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूढ-एवंभूत चारों नयों में इतना साम्य लक्षित होता है कि पर्यायनय स्वरूप ऋजुसूत्र के उपभेद शब्दादि तीनों नय बाह्य अर्थ का स्वीकार करके चलनेवाले हैं। [ ऋजुसूत्र की अन्य व्याख्या - विज्ञप्तिवाद के सामने पूर्वपक्ष ] व्याख्याकार श्री अभयदेवसूरिजीने ऋजुसूत्र की प्रथम व्याख्या के द्वारा पर्यायनयमान्य क्षणिक बाह्यार्थ 20 का समर्थन किया। अब दूसरी व्याख्या से विज्ञप्तिमात्रवाद का समर्थन करनेवाले हैं। यहाँ पहले द्वितीयव्याख्या प्रस्तुत करने के बाद विज्ञप्तिवाद के सामने पूर्वपक्षनिरूपण करेंगे ऋजु यानी अकुटिल-सरल-अवक्र । बाह्यार्थ मानने पर ग्राहक-संवेदन इत्यादि भेदों की कुटिल मायाजाल खडी होती है जो वक्रतारूप ही है, ऐसी वक्रता की झंझट को छोड कर निर्विभाग एकमात्र बुद्धिस्वरूप विज्ञान का ही सूत्रण = निरूपण करता है वह है ऋजुसूत्र जो शुद्ध पर्यायास्तिक (= क्षणिक ज्ञान 25 पर्यायवादी) है। अब यहाँ बाह्यार्थवादी पर्यनुयोग प्रस्तुत करते हैं - बाह्यार्थवादी :- विज्ञानमात्र के अंगीकार का मूलाधार क्या है ? Aनिर्विभागबुद्धिस्वरूप का निवेदक कोई प्रमाण है ? याB अर्थसत्ताबाधक प्रमाण का योग है ? Aपहला पक्ष अयुक्त है। पूछते हैं कि बुद्धिस्वरूप विज्ञानमात्र का निवेदक प्रमाण प्रत्यक्ष है या 30 अनुमान ? अन्य किसी प्रमाण को बौद्ध तो स्वीकारते नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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