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________________ ९२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ भवत् (? भावः) सम्पन्नः तत्रोत्पादहेतूनां व्यापाराभावस्याभीष्टत्वात्, सतो निवर्तयितुमशक्यत्वात्, कार्यकारणयोः सहभावेनाऽ(नि)वृत्तेः । अथोत्पत्तौ स्वभाव आभिमुख्यलक्षणो यस्य सन्निहितसर्वकारणकलापान्तरभाविनः - इत्यभिधातुमभिधेयं(ध्येयम्) तदा कथमस्योत्पत्तिहेतूनां वैयर्थ्यम् ? न हि तथाभूतकारणवशात् तथाव्यपदेशेन हेतोर्व्यर्थता युक्ता। ___Bअथ द्वितीयो विकल्पः, सोप्यनुपपन्नः। यतोऽनुत्पत्तिर्भावप्रतिषेधमानं स्वभावः सर्वसामर्थ्यविरहलक्षणस्याभावस्य तत्र चानभ्युपगमाद्धेतुव्यापारस्य सिद्धसाध्यतैव। न ह्युत्पत्तिहेतवोऽभावं भावीकुर्वन्ति। भावेष्वपि परिणामस्तावदयं न सम्भवति (कि)मुत नीरूपेऽभावे ? नत्वे(न्वे)वं कथमसदुत्पद्यत इत्युच्यते ? कारणानन्तरं यः सद्भावः स प्रागसन्नित्ययमत्रार्थः न पुनरभावो भावत्वमापद्यते इति न कश्चिद्दोषः । अन्यथानुपपत्तावनन्तरभावाभावे(?वो) धर्मो यस्याऽसंनिहित कारणस्य च स एवमभीष्टः तदापि तत्राऽसत्त्वादेव 10 कारणानां व्यापारो न भवतीति न काचित् क्षतिः, लोके चोत्पत्तिधर्माऽनागत एवोच्यते। न च तस्य शशविषाणस्येव तीक्ष्णतादिगोचराणामिव भावाश्रयाणां विकल्पानां सम्भवः । के समास का विग्रह ऐसा करे कि उत्पत्ति के प्रति अभिमुखतासंज्ञक स्वभाव है जिस का - वह उत्पत्तिस्वभाव, अर्थात् समुदित सर्व कारण समूह के उत्तरक्षण में भावि हो वह उत्पत्तिस्वभाव ऐसा कहने की अभिध्या = तात्पर्य हो तब तो स्वभाव अन्तर्गत ही कारणसमूह-अनन्तरभाविता प्रविष्ट है 15 फिर उत्पत्ति हेतुओं की व्यर्थता कैसे ? जब तथाविध कारणसामग्री के बल पर ही उत्पत्ति का व्यवहार सम्पन्न होता है तो फिर हेतु को व्यर्थ बताना किसी तरह युक्तियुक्त नहीं। [ अनुत्पत्तिस्वभाव के स्वीकार में इष्टापत्ति ] Bदूसरा विकल्प है अनुत्पत्तिस्वभाव, वह भी अयुक्त है। अनुत्पत्ति का मतलब है सिर्फ भाव का निषेधात्मक स्वभाव । यहाँ हम सर्वसामर्थ्यशून्यात्मक अभाव को तथा उस के लिये किसी हेतुप्रयोग 20 को नहीं मानते । अतः इस विकल्प को स्वीकार लेने में सिद्धसाध्यता = इष्टापत्ति ही है। हम ऐसा नहीं मानते कि उत्पत्ति का हेतुवृन्द अभाव को भाव में परिवर्तित करता है। जब भाव में परिवर्तनरूप परिणाम का हमें स्वीकार नहीं है तो तुच्छ अभाव के भावात्मक परिवर्तन या परिणाम के स्वीकार की बात ही कहाँ ? यदि पूछे कि - 'अभाव का भावपरिणाम अस्वीकार्य है तब कैसे कहते आये हैं कि असत् उत्पन्न होता है ?' - उत्तर है कि जो कहते आये हैं उस का तात्पर्य है कि कारणप्रयोग 25 के उत्तरक्षण में जो सद्भूत भाव है वह पूर्वक्षण में नहीं था, अभाव का भाव बनता है ऐसा नहीं मानते अतः कोई दोष नहीं है। यदि अनुत्पत्ति का यह अर्थ हो कि कारण के विना जिस की उपपत्ति (या उत्पत्ति) शक्य नहीं - और उस का यह तात्पर्य अभिमत हो कि जिस के कारण उपस्थित नहीं हैं उस के कारण अनन्तर भाव का अभाव, तो यहाँ भी निष्कर्ष यही हुआ – कारण हाजिर न होने से उन का प्रयोग भी हाजिर नहीं है - ऐसा मानने में हमारा कोई नुकसान नहीं। लोक में 30 भी इस बारे में यही कहा जाता है - जो उत्पत्तिधर्मवाला (न कि उत्पन्न) है वह 'अनागत' है। अनागत तो वर्तमान में शशशृंगवत् असत् (तुच्छ) होता है। अतः उस के ऊपर जैसे तीक्ष्ण है या कुण्ठ ये विकल्प निरवकाश हैं उसी तरह भावसम्बन्धि कोई भी विकल्प 'अनागत' के ऊपर सावकाश नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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