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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ __ तथाहि- उदयकाले यः स्वभावः स्थिरः तत्स्वभाव एवायमन्तेऽपीति पुनस्तावन्तमेव कालं तिष्ठेत् । तथा तदन्तेऽपि तावन्तमपरम् कालान्तरस्थितिरूपस्योदयकालभाविनः स्वभावस्य तदन्तेऽपि भावात्। न ह्यन्तेऽपि रूपान्तरसम्भवः तस्यैकस्वभावत्वाद् अकिञ्चित्करस्य च विरोधित्वाऽयोगात्। तत्कथं तदपेक्षोऽयं निवर्तेत ? दण्डादिप्रपातसमयेऽस्य प्रच्युतिलक्षणः स्वभावः स किं प्रागा(?ग्ना)सीत् येनाऽसौ न निवृत्तः ? 5 न हि तद्भावेऽपि पररूपेणायं निवर्त्तते, स्वरूपं च तदेवास्य प्रागपि कथं न निवृत्तिः ? हेतवश्चानुपकार्यापेक्षायां नियुञ्जानाः स्वकार्यमात्मनोऽस्थानपक्षपातित्वमाविष्कुर्युः। न च भवतामप्यकिञ्चित्करमपि मुद्गरादिकमपेक्ष्य कथं प्रवाहो निवर्त्तते इति वाच्यम्- न च विशरारुक्षणव्यतिरेकोऽपरः प्रवाहो विद्यते यो निवृत्तावकिञ्चित्करं मुद्गरादिकमपेक्षते किन्तु परस्परविविक्ताः पूर्वापरक्षणा एव, ते च स्वरसत एव वि(? नि)रुध्यन्ते इति न क्वचिदकिञ्चित्करापेक्षा निवृत्तिः । 10 नहीं आयेगी जब उस स्वभाव का विरह होने पर उस का नाश हो। [ अन्तकाल में स्वभाव तदवस्थ होने से नाश अयोग ] स्पष्टता :- अक्षणिकवादी के मत में यदि उत्पत्ति काल में वस्तु कियत्काल-स्थिरस्वभावी है तो अन्तकाल में भी वह मौजूद होने से तथोक्त अन्तकाल में भी वह कियत्काल स्थिर रहेगी। पुनः जब अन्तकाल आयेगा तब भी उक्त स्वभाव मौजूद होने से वस्तु पुनः कियत्काल अवस्थित रहेगी, क्योंकि 15 उत्पत्तिकालीन जो कियत्कालावस्थानरूप स्वभाव है वह तथाकथित अन्तकाल में हाजिर है। अन्तकाल में वह स्वभाव बदल जाय ऐसा तो कह नहीं सकते क्योंकि वस्तु का स्वभाव आदि-अन्त तक एक अपरिवर्त्य होता है। कदाचित् आंशिक परिवर्तन के रूप में नये स्वभाव को मान ले, किन्तु वह करेगा क्या ? कुछ कर नहीं पायेगा तब पूर्वस्वभाव का विरोध भी नहीं कर सकेगा, तो उस नये स्वभाव से पूर्वस्वभाव का निवर्त्तन कैसे होगा ? यह भी प्रश्न है कि वस्तु में दण्ड-अभिघातकालीननाशस्वभाव 20 जो आप स्वीकारते हैं वह उत्पत्तिकाल में पहले नहीं था जिस से उस काल में घटादि नष्ट न हुए ? यदि कहें कि - 'वह स्वभाव पहले था इसी लिये तो अन्यरूप से उस का निवर्त्तन (यानी भेद) जारी रहा' - तो पूछना है कि अगर पररूपनिवृत्ति के साथ स्वरूप (= दण्डाभिघातजन्यनाशस्वभाव) भी तदवस्थ ही है तब तो स्वरूप से भी निवृत्ति होनी चाहिये। यदि उस काल में नाशहेतु स्वभाव तदवस्थ है फिर भी वह अनुपकारिदशा में होने से (अकिंचित्कर होने से) स्वरूप से नाश नहीं कर 25 सकते - तो ध्यान दिजिये कि वह दशा भी स्वभावान्तर्गत होने से अन्तकाल तक तदवस्थ ही रहेगी, और उस अवस्था के रहते हुए भी वह स्वभावादि हेतु नाश कार्य नियोजित करेगा तो विद्वान लोग समझेंगे कि आप के नाश हेतुओं का यह केवल अनुचित आग्रह यानी जिद्द ही है कि कैसे भी घटादि का नाश कर दो। इस में न्याय कहाँ रहेगा ? [ मोगरादि की निवृत्ति प्रति सापेक्षता प्रश्नगत ] 30 क्षणिकवादी के प्रति यदि कहा जाय कि - 'आप तो मुद्गर को अकिञ्चित्कर ही मानते हैं, तो फिर घटप्रवाह की निवृत्ति (= नाश) मुद्गरप्रहारसापेक्ष ही क्यों होती है' - तो यह कथन ठीक नहीं है - हमारे यहाँ प्रवाह जैसी कोई चीज ही नहीं है। जो कुछ हैं वह नाशवंतक्षण ही हैं जो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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