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________________ ८७ खण्ड-३, गाथा-५ तस्य किंचिद् भवति, न भवत्येव केवलम्, (प्र. वा. ३-२७९ पू०) अन्यथा कस्यचिद् विधाने न भावो निवर्तितः स्यात्' इत्यप्रस्तुताभिधानं भवेत्। यदपि - ‘कृतकोऽपि विनाशो नित्यः, अकृतकोऽपि प्रागभावो विनाशी' इत्यभिधानम् तदपि न न्यायानुगतम्। अथ भावानां कृतकाऽकृतकानां ध्वंसिता-स्थैर्यलक्षणो धर्म एकान्तिकः। न च भावधर्मोऽभावेष्वध्यारोपयितुं युक्तः । कुतः पुनरयमेकान्तिको भावधर्म इत्यवसितम् ? ‘अन्यथाभावस्यानुपलम्भाद्' 5 इति चेत् ? नन्वनुपलम्भोऽयं भवन्नप्यात्मादेः सत्ताया अनिवर्त्तकोऽन्यत्र कथमन्यथाभावं निवर्तयेत् ? न चात्मनोऽनुमानेनोपलम्भाद् इति वाच्यम्, यतोऽनुमानेप्यनुपलम्भ एव हेतोः विपक्षवृत्तिं कथं निवर्त्तयति ? अथ कृतकाऽकृतकानां पदार्थानां हेतुकृतविनाशेतरस्वभावदर्शनादव्यभिचारः, यद्येवं यस्यैव घटादेः कृतकस्य का यह कहना -- विनाश काल में 'वस्तु का कुछ होता नहीं है - इतना ही कहना चाहिये कि वस्तु नहीं होती।' यदि एक को नष्ट होने पर अन्य का विधान किया जाय तब तो भाव की निवृत्ति 10 नहीं होगी।” – यह कथन अप्रस्तुत ठहरता है। [कृतकविनाश की नित्यता युक्तियुक्त नहीं ] ___ किसी का यह कथन – 'जैसे अकृतक होने पर भी प्रागभाव विनाशी होता है वैसे कृतक होने पर भी नाश नित्य हो सकता है' - न्यायसंगत नहीं है। अब ऐसा कहें कि - 'ध्वंसशीलता एवं स्थैर्य ये क्रमशः कृतक और अकृतक भाव के ही धर्म हैं यह सुनिश्चित तथ्य है। आप ध्वंसरूप 15 अभाव में कृतकत्व के बल से जो भावधर्मात्मक नाश का आरोप करते हैं वह उक्त रीति से अनुचित है (कृतकत्व नाशप्रयोजक नहीं है किन्तु कृतकभावत्व नाशप्रयोजक है।)' - तो यहाँ प्रश्न है – नाश कृतकभाव का ही धर्म है यह कैसे सुनिश्चित तथ्यरूप मान लिया ? उत्तर में कहा जाय कि भावेतर पदार्थ के धर्मरूप में नाश (यानी अन्यथाभाव) का अनुपलम्भ ही उस के भावधर्मता का साक्षि है - तो यहाँ आत्मा के दृष्टान्त से आप के कथन की अतथ्यता को जान लो - आत्मादि तत्त्वों 20 का उपलम्भ नहीं होता, फिर यहाँ अनुपलम्भ से आत्मसत्ता की निवृत्ति नहीं मानी जाती, तो फिर भाव में ध्वंस का उपलम्भ, अभाव में उस का अनुपलम्भ - इतने मात्र से अभाव की नाशधर्मितारूप वैपरीत्य (अन्यथाभाव) की निवृत्ति कैसे मानी जाय ? [ अनुपलम्भ मात्र से वस्तु अभाव की सिद्धि अशक्य ] यहाँ ऐसा मत कहना कि – 'आत्मा की अनुमान से उपलब्धि होती है अतः अनुपलम्भ से 25 आत्मसत्ता की निवृत्ति नहीं हो सकती (यहाँ अभाव की नाशधर्मिता की उपलब्धि नहीं होती अतः उस की सत्ता अभाव (ध्वंस) में कैसे मानी जाय ?)' – इस कथन के निषेध का कारण यह प्रश्न है कि अनुमान के संदर्भ में (विपक्ष में हेतु न देखने मात्र से) अनुपलम्भ मात्र हेतुसत्ता को विपक्ष से व्यावृत्त कैसे कर सकता है ? यदि कहा जाय कि – 'घटादि कृतक पदार्थ (यानी भाव) हेतुजन्य विनाशस्वभाववाले होते हैं तथा गगनादि अकृतक भाव तथास्वभाववाले नहीं होते - (भाव के लिये 30 ऐसा दिखता है, अभाव के लिये नहीं) इस से, अभाव में नाशधर्मिता के अनुपलम्भ से उस का अव्यभिचार यानी धर्मिता का अभाव मान सकते हैं।' - तो यदि ऐसा ही मानेंगे तो ऐसा भी मान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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