________________
४०२
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् वचनार्थनिश्चयो व्यवहारहेतुः न पुनरस्तित्वमात्रनिश्चयः । यतः 'अस्ति' इत्युक्तेऽपि श्रोता शंकामुपगच्छन् लक्ष्यते अतः 'किमस्ति' इत्याशंकायाम् 'द्रव्यम्' इत्युच्यते, तदपि “किम्'- पृथिवी, सापि का- वृक्षः, सोपि कः चूतः, तत्राप्यर्थित्वे यावत् पुष्पितः- फलितः इत्यादि तावनिश्चिनोति यावद् व्यवहारसिद्धिरिति । व्यवहारो हि नानारूपतया सत्तां व्यवस्थापयति तथैव संव्यवहारसंभवात् । अतो व्यवहरतीति व्यवहार इत्यन्वर्थसंज्ञां विभ्रत् अशुद्धा द्रव्यास्तिकप्रकृतिर्भवति ॥४॥ कौन सा ? उत्तर - आम का । पुन: पुष्पार्थी पूछता है- आम का पेड सूखा है या पुष्पित ? उत्तर - पुष्पित । अब फलार्थी हो तो पूछ देगा- फलित है या अफलित ? उत्तर - फलों से लदा हुआ है। इस प्रकार आगे तब तक आकांक्षा-उत्तर चलते रहते हैं जब तक इष्टव्यवहार सिद्ध न हो । यह व्यवहार विविधरूप से वस्तु की सत्ता पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है, क्योंकि विविधरूपों पर ध्यानाकर्षण होने से ही उचित व्यवहारों का पालन होता है । इस प्रकार, 'व्यवहरति' यानी विशेषरूपों का अवहरण- निर्धारण करता है इस लिये उसे 'व्यवहार' कहा जाता है, यह सार्थक संज्ञा धारण करने वाला व्यवहारनय द्रव्यास्तिकनय की अशुद्ध यानी वैविध्यपूर्ण (भेदपूर्ण) प्रकृति है।
चौथी गाथा की व्याख्या समाप्त । श्री सिद्धसेन दिवाकरविरचित सम्मति तर्क-प्रकरण की श्री अभयदेवसूरिविरचित तत्त्ववोधविधायिनी-व्याख्या के मुनि जयसुंदरविजयरचित हिन्दीविवेचन का
द्वितीय खंड समाप्त
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org