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द्वितीयः खण्ड:-का०-४
४०१ ___ सोऽभिमन्यते यदि हि हेयोपादेयोपेक्षणीयस्वरूपाः परस्परतो विभिन्न स्वभावाः सद्रूपतया शब्दप्रभवे संवेदने भावाः प्रतिभान्ति ततो निवृत्ति-प्रवृत्त्युपेक्षालक्षणो व्यवहारस्तद्विषयप्रवृत्तिमासादयति नान्यथा । न चैकान्ततः सन्मात्राऽविशिष्टेषु भावेषु संग्रहाभिमतेषु पृथक् स्वरूपतया परिच्छेदोऽबाधितरूपो व्यवहारनिबन्धनं सम्भवतीति । तथाहि - यद्यद्या(?दा)कारनिरपेक्षतया स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिभासमाधत्ते तत् तथैव 'सत्' इति व्यवहर्त्तव्यम् यथा प्रतिनियतसत्तादिरूपम्, घटाद्याकारनिरपेक्षं च पटादिकं स्वावभासिनि ज्ञाने स्वरूपं संनिवेशयतीति स्वभावहेतुः । घटादिनिरपेक्षत्वं च पटादेः घटायभावेपि भावात् अवभास(मा?)नाच्च सिद्धम् ।
___ यद्वा प्रतिशब्दो वीप्सायाम् रूपशब्दश्च वस्तुन्यत्र प्रवर्तते । तेनायमर्थः रूपं रूपं प्रति, वस्तु वस्तु प्रति यो वचनार्थनिश्चयः तस्य प्रकृति(:) स्वभावः स व्यवहार इति । तथाहि - प्रतिरूपमेव होता है वह वचन, उस का जो अर्थ- विशेषरूप से 'घट' और सामान्यरूप से 'अस्ति' ऐसी प्रतीति करानेवाला व्यवहारोचित अर्थ, उस अर्थ का निश्चय- 'निस्' यानी निर्गत-पृथग्भूत, चय यानी परिच्छेद बोध । मूलगाथा में 'तस्य' पद का अर्थ है 'द्रव्यास्तिक का' तथा 'व्यवहार' शब्द से अभिप्रेत है लोकप्रसिद्धव्यवहार प्रवर्तनशील (ज्ञानात्मक) नय । _व्यवहारनय मानता है- शब्दजन्य संवेदन में यदि हेय-उपादेय-उपेक्ष्यस्वरूप अन्योन्य भेदशाली पदार्थ सद्रूप से जब भासित होते हैं तभी निवृत्ति-प्रवृत्ति और उपेक्षात्मक तथाविधपदार्थसंबन्धी व्यवहार प्रवृत्त हो सकता है, अन्यथा नहीं । यदि पदार्थ सभी एकान्ततः 'सत्' रूप से अविशिष्ट यानी सत् सामान्यरूप ही होतें- जैसा कि संग्रहनयवादी को अभीष्ट है- तब तो व्यवहार के प्राणभूत विविधरूप से होने वाले अबाधित परिच्छेद (=निश्चय) का उदय सम्भव ही नहीं होता । कैसे यह देखिये- जो अपने ग्राहक ज्ञान में जिस आकार को निरपेक्ष रह कर प्रतिभासित होता है वह उस आकार से निरपेक्षरूप में ही सत् होने का व्यवहार होना चाहिये; जैसे कि प्रतिनियत सत्तादिरूप । वस्त्रादि अपने ग्राहकज्ञान में घटादिआकार से निरपेक्षरूप में ही स्वरूपावभासि होते हैं । यह एक प्रसंगापादन है जिसमें स्वभाव को हेतु किया गया है । घटादि के न होने पर भी वस्त्रादि होते हैं एवं भासित होते हैं अत: वस्रादि घटादि-निरपेक्ष हैं इस तथ्य में तो कोई संदेह नहीं । इसी प्रकार, घटादिविशेषनिरपेक्ष सिर्फ सत्रूप से अविशिष्ट ही पदार्थ माना जाय तब तो अपने ग्राहकज्ञान में घटादिरूप से जो उसका अबाधित अनुभव होता है वह नहीं बन सकता, अत: विशेषरूप से व्यवहार अनायास सिद्ध हो जाता है ।
★ प्रतिवस्तु वचनार्थनिश्चय- व्यवहार ★ ___ उत्तरार्ध की उक्त व्याख्या में कुछ क्लिष्टता को देख कर मानो व्याख्याकार फिर से सरल व्याख्या उसकी बता रहे हैं- 'प्रतिरूप' में 'प्रति' शब्द पुनरावृत्ति के लिये है और रूप शब्द वस्तुवाचक है, अब अर्थ ऐसा होगा- एक एक रूप यानी वस्तु के प्रति जो (उक्त प्रकार से) वचनार्थनिश्चय, उसकी प्रकृति यानी स्वभाव यही व्यवहार है । कैसे यह देखिये- प्रत्येकवस्तुसम्बन्धि जो वचनार्थनिश्चय है वही व्यवहारसाधक है, न कि सिर्फ अस्तित्वमात्रनिश्चय । कारण, सिर्फ 'अस्ति' (=कुछ है) इतना ही कहने से श्रोताको कुछ आकांक्षा रहती हुई दिखती है- तो क्या है ? इसके उत्तर में कहना पडता है 'द्रव्य है' । पुन: आकांक्षा- द्रव्य भी कौन सा है ? उत्तर- पृथ्वी द्रव्य । पुन: आकांक्षा - पृथ्वी भी कौन सी ? उत्तर - वृक्ष । पुन: आकांक्षा-वृक्ष भी
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