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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम्
[ संग्रहस्य सत्तामात्रविषयकत्वोपदर्शनम् ] सुबन्तस्य तिङन्तस्य वा पदस्य वाक्यस्य वा प्ररूपणास्वभावस्य विषयः संग्रहाभिप्रायेण भाव एव । तथाहि - जाति-द्रव्यगुण-क्रियापरिभाषितरूपेण स्वार्थ-द्रव्य-लिंग-कर्मादिप्रकारेण वा सुबन्तस्य योऽर्थः स भावाद् व्यतिरिक्तो वा भवेदव्यतिरिक्तो वा ? यदि व्यतिरिक्तस्तदा निरुपाख्यत्वादत्यन्ताभाववत् न द्रव्यादिरूप इति कथं सुबन्तवाच्यः ? अव्यतिरिक्तश्चेत् कथं न भावमात्रता सुबन्तार्थस्य ? तिङन्तार्थस्यापि क्रिया-कालकारक-पुरुष-उपग्रह-वचनादिरूपेण परिभाष्यमाणस्य सत्तारूपतैव । तथाहि - 'पचति' इत्यत्र क्रिया विक्लित्तिलक्षणा, काल आरम्भप्रभृतिर(प)वर्गपर्यन्तो वर्तमानस्वरूपः, कारकं कर्ता, पुरुषः परभावात्मकः, उपग्रहः परार्थता, वचनमेकत्वम् यद्यपि प्रतिपत्तिविषयः, तथापि सत्त्वमेवैतत् । यतः क्रिया ह्यसती चेत् कारकैर्न साध्येत खपुष्पादिवत्, सती चेत् अस्तित्वमेव सा कारकैश्वाभिव्यज्यत इति । एवं कालादयोप्यसन्तश्चेद् न शशशृंगाद् भिघेरन् सदात्मकाश्चेत् कथं न अस्तित्वादभिन्ना इति सत्तैव तिङन्तस्यार्थः । 'घटोस्ति इति वाक्यार्थे यद् वाक्यं प्रयुज्यते 'घटः सन्' इति, तत्र भावाभिधायिता पदद्वयस्या
*सत्तामात्रवस्तुवादी-संग्रहनयप्ररूपणा ★ व्याकरणशास्त्र में सु-औ-जस् इत्यादि प्रथमादि सात विभक्तिवाले पदों को सुबन्तपद कहते हैं और ति-तस्-अन्ति आदि प्रत्ययवाले पदों को तिङन्त पद कहते हैं । संग्रहनय कहता है कि प्ररूपणास्वभावनाले सुबन्त-तिङन्त पद अथवा वाक्य का विषय वास्तव में भाव ही होता है। व्याकरण की परिभाषा के अनुसार जाति-द्रव्य-गुण-क्रिया अथवा स्वार्थ-द्रव्य-लिंग-कर्मादि ये सब सुबन्तपद का अर्थ है उसके ऊपर संग्रहनयवादी कहता है कि ये अर्थ भाव (सत्तामात्र) से भिन्न है या अभिन्न हैं ? यदि भित्र है, तब तो सुबन्त का अर्थ सत्ताविहीन होने से अर्थात् असत् होने से अत्यन्ताभाव की तरह निरुपाख्य यानी अवाच्य ही बन जायेगा, उन को द्रव्यादिरूप नहीं बता सकेंगे । तब द्रव्यादिरूप अर्थ को सुबन्तवाच्य कैसे कह सकेंगे ? यदि भाव (यानी सत्ता) से सुबन्तवाच्य अर्थ अभिन्न हैं तब तो भावमात्र ही सुबन्त का अर्थ क्यों नहीं होगा ? संग्रहनय को तो वही इष्ट है । व्याकरणशास्र में जो तिङन्तपद के क्रिया-काल-कारक-पुरुष-उपग्रह-वचनादिरूप अर्थ दिखाये हैं वे भी सत्तारूप ही है । कैसे यह देखिये - ‘पचति' (= वह पकाता है), यहाँ विक्लित्ति यानी अवयवशैथिल्य यह क्रिया है, विक्लित्ति क्रिया के आरम्भ से ले कर अन्त तक वर्तमानकाल है । कर्ता कारक है । पुरुष है परभाव, उत्तमपुरुष (अहं) से भित्र (अधम-मध्यम) पुरुष को परभाव कहते हैं। उपग्रह परार्थतारूप है, आत्मनेपद से व्यंग्य आत्मार्थता और परस्मैपद से अभिव्यंग्य परार्थता- ये उपग्रह कहे जाते हैं, पचति में परस्मैपद से परार्थता व्यंग्य होती है । 'पचति' में एकवचन एकत्वसंख्यासूचक है । यद्यपि यहाँ तिङन्त से इन सभी की प्रतीति होती है किन्तु ये सब सत्त्वरूप ही हैं । कारण, क्रिया यदि सत् नहीं होती तो गगनकुसुम की तरह वह कारकव्यापार से निष्पन्न नहीं होंगी । यदि सत् होंगी तब तो वही अस्तित्वरूप अर्थ हुआ जो कारकों से अभिव्यक्त होता है । क्रिया की तरह तिङन्तार्थभूत कालादि भी सत नहीं होंगे तो उनकी हालत गगनकसम जैसी होगी। और यदि सत होंगे तो अस्तित्व से भिन्न न होने से सत्ता ही तिङन्त का अर्थ फलित होगा जो संग्रहनय को इष्ट है।
पद के अर्थ की बात हुई तो अब वाक्यार्थ की बात भी देखिये- 'घटोऽस्ति' (=घट है) ऐसे वाक्यार्थ के लिये जो 'घट: सन्' ऐसा वाक्य प्रयुक्त होता है- यहाँ ट:' और 'सत्' ये दोनों पद भावमात्र के ही
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