________________
द्वितीयः खण्ड:-का०-४
३९७
चतुर्थी गाथा 'दव्वढिओ य पज्जवणओ य' इत्यादिपश्चाद्धैकदेशस्य विवरणाय आह सूरिः -
दव्वट्टियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ।
पडिरूवे पुण वयणथनिच्छओ तस्स ववहारो ॥४॥ अवयवार्थस्तु- द्रव्यास्तिकनयस्य व्यावर्णितस्वरूपस्य प्रकृतिः = स्वभावः शुद्धा इत्यसंकीर्णा विशेषाऽसंस्पर्शवती संग्रहस्य = अभेदग्राहिनयस्य प्ररूपणा = प्ररूप्यतेऽनयेति कृत्वा उपवर्णना पदसंहतिः तस्या विषयो-ऽभिधेयः विषयाकारेण विषयिणो वृत्तस्य विषयव्यवस्थापकत्वादुपचारेण विषयेण विषयिप्रकथनमेतत्, अन्यथा का प्रस्तावः शुद्धद्रव्यास्तिकेऽभिधातुं प्रक्रान्ते संग्रहनरूपणाविषयाभिधानस्य ?
★शुद्ध-अशुद्ध द्रव्यास्तिक संग्रह-व्यवहार ★ तीसरी गाथा के उत्तरार्ध में 'दवडिओ य पज्जवणओ य' ऐसा जो वाक्यांश है उस के एकभाग का यानी द्रव्यार्थिक का विवरण अब मूलग्रन्थकार आचार्य सिद्धसेन चौथी गाथा से कहते हैं- गाथासूत्र का वाक्यार्थ इस प्रकार है
"द्रव्यास्तिक नय की शुद्ध प्रकृति संग्रहनय की प्ररूपणा का विषय है और प्रति वस्तु होने वाला शब्दार्थनिश्चय उस संग्रह का व्यवहार यानी विस्तारीकरण है" ॥४॥
"इस गाथासूत्र का तात्पर्यार्थ संक्षेप में इतना ही है कि संग्रहनय का प्रत्यय (अभिप्राय) शुद्ध द्रव्यास्तिक नय है और व्यवहारनय का प्रत्यय अशुद्ध द्रव्यास्तिक है ।
श्री व्याख्याकार महर्षि पहले इस गाथा के पूर्वार्ध का अवयवार्थ दिखाते हैं (बाद में उत्तरार्ध का दिखायेंगे) 'द्रव्यास्तिकनय' जिस का शब्दार्थ एवं स्वरूप पहले कह आये हैं, उसकी प्रकृति यानी स्वभाव, कैसा स्वभाव'शुद्ध, यानी विशेष के स्पर्श से अलिप्त-असंकीर्ण-अमिश्रित' ऐसा स्वभाव- अभेदग्राही संग्रहनयप्ररूपणा की सीमा में उसका स्थान है । जिस से वस्तु का बयान किया जाय उसको प्ररूपणा कहते हैं । अर्थात् अर्थ के तथाभाव की निकट में हो ऐसा वर्णन (उपवर्णन) करने वाली पदावली । उस पदावली का विषय है शुद्ध स्वभाव, यहाँ विषय यानी उस पदावली का अभिधेय - वाच्य है । द्रव्यास्तिक नयस्वभाव को यहाँ विषय कहा है और और उसके व्यवस्थापक रूप में संग्रहनयप्ररूपणा को विषयी बताया है, किन्तु यह पूरा सच नहीं है क्योंकि जो विषयी विषयाकार से वृत्त यानी परिणत होता है वही विषय का व्यवस्थापक हो सकता है और वैसा तो प्रमाणभूत ज्ञान ही होता है, इसलिये ज्ञान का विषय द्रव्यास्तिक नय दिखाना चाहिये, किन्तु यहाँ ज्ञान प्ररूपणाधीन होने के कारण उपचार से द्रव्यास्तिक के विषय को लेकर प्ररूपणा को विषयी बताया गया है। अगर ऐसा नहीं होता तो शुद्धद्रव्यास्तिक के स्वरूप को दर्शाने के प्रस्ताव में प्रमाणभूत ज्ञानस्वरूप विषयी का निर्देश करने के बदले संग्रहनय की प्ररूपणा का विषय कहने की जरूर क्या होती !!
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org