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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तस्य अन्यहेत्वभावाच्च । तथाहि - न तावत् कादाचित्ककारणसंनिधानायत्ता कादाचित्की शक्तिरस्य युक्ता तदभावात् । नापि स्वाभाविकी सदा संनिहिता, अविकलकारणत्वेन सर्वस्याभ्युदयनिःश्रेयसलक्षणस्य पुरुषार्थस्य युगपदुत्पत्तिप्रसंगात् । न च बुद्धि - चैतन्ययोरभेदेपि चैतन्यस्यात्मत्वमप्रतिषिद्धमेव, यतो नास्माभिः चैतन्ये आत्मशब्दनिवेशः प्रतिषिध्यते; किं तर्हि ? यस्तत्र नित्यत्वलक्षणो धर्मः समारोपितः स एव निषिध्यते, तन्नित्यत्वेऽक्षसंहतेर्वैफल्यप्रसक्तेः, तदुत्पत्त्यर्थत्वात् तस्याः, नित्यत्वे चोत्पत्तेरसम्भवात्। न हि वढेः सदाऽस्तित्वे तदर्थ जनतेन्धनमादीत । तन नित्यैकरूपं चैतन्यं युक्तिसंगतम् ।।
___ यदपि 'परार्थाश्चक्षुरादयः' [३७५-१०] इत्याद्युक्तम् तत्र आधेयातिशयो वा परः साध्यत्वेनाभिप्रेतः यद्वाऽविकार्यनाधेयातिशयः, अहोस्वित् सामान्येन चक्षुरादीनां पारागेमानं साध्यत्वेनाभिप्रेतमिति विकल्पत्रयम् । तत्र यदि प्रथमः पक्षः स न युक्तः, सिद्धसाध्यतादोषाऽऽघ्रातत्वात् । यतोऽस्माभिरपि विज्ञानोपकारित्वेनाभ्युपगता एव चक्षुरादयः "चक्षुः प्रतीत्य रूपादि चोत्पद्यते चक्षुर्विज्ञानम्" [ ] इत्यादिवकही जाती है, और कोई अनौपचारिक प्रवृत्ति उसकी नहीं होती । प्रधान तो नित्य है, और प्रधान के अलावा और किसी हेतु की सत्ता भी नहीं है, तब उस की प्रवृत्ति या तो सदा होनी चाहिये, या कभी नहीं होनी चाहिये, किन्तु नियतकालीन प्रवृत्ति का उस के साथ मेल नहीं बैठेगा । कैसे यह देखिये - प्रधानात्मक कारण के नित्य होने से, 'नियत काल में ही कारण का संनिधान होने से उस में प्रवर्तन शक्ति भी नियतकालीन ही हो सके' ऐसा बन नहीं सकता, क्योंकि प्रकृति में नियतकालीनता ही नहीं है । स्वाभाविक शक्ति भी उस में संनिहित नहीं मान सकते, क्योंकि तब तो सभी पुरुषों की मुक्ति के लिये तथाविधशक्तिशाली प्रधानरूप कारण सदा निकटवर्ती होने से सभी पुरुषों को अभ्युदय-नि:श्रेयसकारक धर्मपुरुषार्थ का एकसाथ ही उदय हो जाने की आपत्ति होगी।
बुद्धि और चैतन्य को यदि अभिन्न माना जाय तो हमें कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि बुद्धि-अभिन्न चैतन्य में आत्मत्व मानने में कोई बाधा नहीं पहुँचती । यानी क्षणिक आत्मा, चैतन्य अथवा बुद्धि एक ही चीज है। हम जो आत्मा का निषेध करते हैं वह नित्य आत्मा का, अर्थात् चैतन्यरूप आत्मा में नित्यत्व का निषेध करते हैं, चैतन्य के लिये पर्यायवाची 'आत्मा' शब्द का प्रयोग करने का निषेध हम नहीं करते। यदि आत्मस्वरूप चैतन्य को नित्य मानेंगे तो इन्द्रियवर्ग निष्फल बन जायेगा, क्योंकि ज्ञानात्मास्वरूप चैतन्य की उत्पत्ति के लिये ही उस की सार्थकता होती है । जब वह नित्य ही होगा तो इन्द्रियों से उस की उत्पत्ति कैसे होगी ? अग्नि अगर शाश्वत होगा तो उस को प्रगट करने के लिये क्यों जनता इन्धन लाने को दौडेगी ? सारांश, यह युक्तिसंगत बात नहीं है कि 'चैतन्य नित्य एवं एकरूप है ।
★ पुरुषसाधक अनुमान पर विकल्पत्रयी★ यह जो अनुमान कहा था - चक्षु आदि अन्यार्थक है.. इत्यादि, वहाँ कैसे स्वरूप वाले अन्य (=पर)' की सिद्धि अभिप्रेत है ? तीन विकल्प हैं - जिस में संस्काराधान न हो सके, 'जिस में कोई विकार या संस्कार न हो सक, अथवा पर की सिद्धि के बदले चक्षु आदि में सिर्फ अन्यार्थकत्व ही सिद्ध करना अभिप्रेत *. 'चक्खं च पटिच रूपे च उप्पज्जति चक्खु विधाणं' इति संयुक्तनिकापे निग० ११-२ ।
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