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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
३८१
मुत्पत्तिमत्त्वमपूर्वोत्पादलक्षणम् नाशित्वं च निरन्वयविनाशात्मकं प्रसिद्धं बौद्धस्य न तथाविधं सांख्यस्य, तयोराविर्भाव-तिरोभावरूपत्वेन तेनांगीकरणात् । यथा च सांख्यस्य तौ प्रसिद्धौ न तथा बौद्धस्येति कथं नान्यतराऽसिद्धता ? न च शब्दमात्रसिद्धौ हेतुसिद्धिः, वस्तुसिद्धी वस्तुन एव सिद्धस्य हेतुत्वात् । तदुक्तम्[प्र. वा. १-२२]
तस्यैव व्यभिचारादौ शब्देप्यव्यभिचारिणि । दोषवत् साधनं ज्ञेयं वस्तुनो वस्तुसिद्धितः ॥ इति ।
अथ प्रसंगसाधनमिति पक्षस्तदा साध्यविपर्यये बाधकप्रमाणाऽप्रदर्शनादनैकान्तिकता। न ह्यत्र प्रतिबन्धोऽस्ति चेतनोत्पाद-नाशाभ्यां न भवितव्यमिति ।
यदपि प्रकल्पितम् [सांख्य० का० ५७] - वत्सविवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य । पुरुषविमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य ।
तदपि न सम्यक्, यतः क्षीरमपि न स्वातन्त्र्येण वत्सविवृद्धिं चेतस्याधाय प्रवर्तते, किं तर्हि ? कादाचित्केभ्यः स्वहेतुभ्यः प्रतिनियतेभ्यः समुत्पत्तिमासादयति, तच्च लब्धात्मलाभं वत्सविवृद्धिनिमित्तता. मुपयातीत्यचेतनमपि प्रवर्त्तते इति व्यपदिश्यते । न त्वेवं प्रधानस्य कादाचित्की प्रवृत्तिर्युक्ता नित्यत्वात् तो वह बौद्धमत में असिद्ध हो जायेगा । यदि कहें कि - 'दोनों मत में उत्पाद-विनाश की प्रसिद्धि अलग अलग होने पर भी शब्दरूप तो समान ही है इस लिये असिद्धि नहीं होगी' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि समान शब्दमात्र उभयमतसिद्ध होने से हेतुसिद्धि नहीं हो जाती । हेतु से जो साध्य सिद्ध करना है वह सिर्फ शब्दरूप सिद्ध नहीं करना है किन्तु वस्तुरूप साध्य सिद्ध करना होता है, अत: वस्तुभूत साध्य की सिद्धि के लिये वस्तुसिद्ध ही हेतु बन सकता है न कि शब्दरूप । प्रमाणवार्त्तिक में कहा है - "शब्द का व्यभिचार (यानी उभयमत असिद्धता के) न होने पर भी वस्तुभूत अर्थ का व्यभिचार होने पर साधन सदोष हो जाता है क्योंकि वस्तुभूत हेतु से ही वस्तु (साध्य) की सिद्धि हो सकती है।" __यदि उत्पत्ति-विनाशधर्मयोगित्व हेतु से बुद्धि में अचेतनत्व का सिर्फ अनिष्टापादन ही करना अभिप्रेत है तब विपक्ष की शंका हो सकती है कि उत्पत्तिआदि के रहने पर भी अचेतनत्व न रहे तो क्या बाध ? ऐसी शंका के निरसन में आपने कोई प्रमाण नहीं दिखाया है इस लिये संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिरूप अनैकान्तिकत्व दोष लग जायेगा । ऐसा कोई नियम का बन्धन नहीं है कि चेतन के नाशोत्पाद नहीं ही होने चाहिये ।
★क्षीरप्रवृत्ति का दृष्टान्त असंगत ★ सांख्यकारिका में जड प्रकृति में भी प्रवृत्ति प्रमाणित करने के लिये जो यह (का.५७ में) कल्पना की गयी है -
"ज्ञानशून्य होते हुये भी दूध बछेडा के पोषण के लिये अपने आप (गाय के आँचल से) झरता है - प्रवृत्त होता है, वैसे ही पुरुष के मोक्ष के लिये ज्ञानशून्य प्रकृत्ति की प्रवृत्ति होती है ।"
वह ठीक नहीं है, क्योंकि 'बछेडा के पोषण का प्रयोजन अपने मन में रख कर स्वतन्त्ररूप से अपने आप ध की प्रवृत्ति होती है' - ऐसी बात नहीं है । तो कैसे होती है ? उत्तर - ध अपने नियतकालीन -नियत (अमुक अमुक) हेतुओं से पहले गाय के आँचल में उत्पन्न होता है, फिर बछेडा उस को चूसता है तब बछेडा के पोषण में वह निमित्त बनता है, यह उसका निमित्तभाव ही उपचार से उस अचेतन की प्रवृत्ति
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