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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् वा व्यावर्त्तमानं स्वं व्याप्यं स्वकार्य वाऽऽदाय निवर्त्तत इति युक्तम् तयोस्ताभ्यां प्रतिबन्धात्, नान्यः अतिप्रसंगात् । न च 'पयसो दनि शक्तिः' इत्यादिव्यपदेशः विकल्पो वा भावानां व्यापकः स्वभावः कारणं वा येनासौ निवर्तमानः स्व(म्)भावं निवर्तयेत्, तव्यतिरेकेणापि भावसद्भावात् । यतो व्यपदेशाः विकल्पाच निरंशैकस्वभावे वस्तुनि यथाभ्यासमनेकप्रकाराः प्रवर्त्तमाना उपलभ्यन्ते, एकस्यैव शब्दादेर्भावस्य अनित्यादिरूपेण 'भिन्नसमयस्थायिभिर्वादिभिः व्यपदेशात् विकल्पनाच्च - तत्तादात्म्ये वस्तुनश्चित्रत्वप्रसक्तिः व्यपदेश-विकल्पवत्, शब्दविकल्पानां वस्तुस्वरूपवदेकत्वप्रसंगः । न ह्येकं चित्रं युक्तम् अतिप्रसंगात् । ततः शक्तिप्रतिनियमात् किंचिदेव असद् विधीयते न सर्वम्, इत्यनैकान्तिकोऽपि 'नरूप्यात्' इति हेतुः ।
'उपादानग्रहणात्' इत्यादिहेतुचतुष्टयस्य अत एवानैकान्तिकत्वम् । तथाहि - यदि कार्यसत्त्वकृतमेव प्रतिनियतोपादानग्रहणं क्वचित् सिद्धं भवेत् तदैतत् स्यात्, यावता कारणशक्तिप्रतिनियमकृतमपि प्रतिनियतोपादानग्रहणं घटत एव । सर्वस्मात् सर्वस्य सम्भवोऽपि कारणशक्तिप्रतिनियमादेव च न भवति, निवृत्ति होती है। प्रस्तुत में, 'दही की शक्ति दूध में ऐसा शब्दव्यवहार अथवा वैसा विकल्प पूर्वोक्त 'वस्तुस्वरूप' भाव का (जिस के उत्तरक्षण में अन्य वस्तु उत्पन्न होती है उस का) व्यापक स्वभावात्मक अथवा कारणरूप नहीं है कि जिस से, उन की निवृत्ति से पूर्वोक्त वस्तुस्वरूप भाव की भी निवृत्ति मानी जा सके । क्योंकि तथोक्त शब्दव्यवहार अथवा विकल्प के विना भी पूर्वोक्त वस्तुस्वरूप का सद्भाव हो सकता है। (इस प्रकार अवधिशून्यत्व हेतु साध्यद्रोही सिद्ध हुआ)।
शब्द और विकल्प की व्यावृत्ति से वस्तुव्यावृत्ति नहीं होती वैसे ही शब्द-विकल्प के द्वारा वस्तुप्रतिष्ठा भी नहीं होती, क्योंकि वस्तु निरंश एकस्वभाववाली होती है किन्तु ज्ञाता को अपने अभ्यास के अनुसार, शब्द और विकल्प तो वस्तु के बारे में कई प्रकार के उत्पन्न होते हैं, यह दिखता है । जैसे एक ही शब्दादि वस्तु के लिये अपने अपने भिन्न भिन्न आगमों के अभ्यास के अनुरूप अनेकसमयस्थायिवस्तु-वादि को नित्यत्व का और एक समयस्थायिवस्तुवादी को अनित्यत्व का विकल्प होता है और तदनुसार शब्दव्यवहार करते हैं । किन्तु नित्यत्व-अनित्यत्व उभय का तादात्म्य तो वस्तु में हो नहीं सकता, होने का मानेगें तो जैसे शब्द और विकल्प में चित्रत्व होता है वैसे वस्तु भी चित्र (यानी अनियतस्वभाववाली) हो जाने की विपदा होगी । अथवा तो वस्तु के एकत्व की तरह शब्द और विकल्प में चित्रत्व लुप्त हो कर एकत्व प्रसक्त होगा । एक वस्तु को चित्र (= अनेकस्वभाव) मानना योग्य नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर वस्तु के नियतस्वरूप के भंग का अतिप्रसंग हो सकता है ।
निष्कर्ष, शक्ति का नियम ऐसा है, (जो पहले कहा है कि जिस के उत्पादक कारण मौजूद है वही भाव पूर्व में असत् होने पर भी उत्पन्न होता है,) इस लिये कुछ ही असत् का करण होता है, शशसींग आदि सभी असत् का नहीं होता । अत: पहले जो यह प्रयोग दिया था कि 'असत् का करण अशक्य है क्योंकि नीरूप = नि:स्वभाव है' इस प्रयोग में नीरूपता हेतु साध्यद्रोही सिद्ध होता है, क्योंकि 'असत् का करण अशक्य है' यह दिखा दिया है।
★ उपादानग्रहण आदि हेतु साध्यद्रोही* 'असत् का अकरण' इस प्रथम हेतु के समान 'उपादानग्रहण' आदि चार हेतु भी साध्यद्रोही हैं । कैसे ? देखिये - 'नियत उपादान का ग्रहण उत्पत्तिपूर्व कार्यसत्त्व के जरिये ही होता है' ऐसा कहीं देखने को मिलता तब तो वह सच्चा हेतु बन सकता, किन्तु वैसा तो कहीं देखने को मिलता नहीं, बल्कि कारणों में नियत * भित्रस्य समय० इति लिं० पाठः ।
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