________________
द्वितीयः खण्ड:-का०-२ प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । न चाऽविभागेन तयोः प्रवृत्तिरस्ति, तस्मात् सन्ति द्रव्यादयः पारमार्थिकाः प्रस्तुतप्रत्यय-शब्दविषयाः ।
प्रमाणयन्ति चात्र - ये परस्पराऽसंकीर्णप्रवृत्तयस्ते सनिमित्ताः यथा श्रोत्रादिप्रत्ययाः असंकीर्णप्रवृत्तयत्र 'दण्डी' इत्यादिशब्दप्रत्ययाः - इति स्वभावहेतुः । अनिमित्तत्वे सर्वत्राऽविशेषेण प्रवृत्तिप्रसङ्गो बाधकं प्रमाणम् ।
[ अपोहवादे शब्दप्रतीतिनिमित्तम् ] अत्र यदि पारमार्थिकबाह्यविषयभूतेन निमित्तेन सनि(सनि)मित्तत्वमेषां साधयितुमिष्टं तदानैकान्तिकता हेतोः, साध्यविपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् । अथ येन केनचिनिमित्तेन सनिमितत्त्वमिप्यते तदा सिद्धसाध्यता । तथाहि-अस्माभिरपीष्यते एवैषामन्त ल्पवासनाप्रबोधो निमित्तं न तु विषयभूतम्, भ्रान्तआदि अपारमार्थिक होंगे तो 'दण्डी' इत्यादि बुद्धि और शब्दव्यवहार निर्विषय हो जाने की आपत्ति होगी। यदि इन सब को विना निमित्त ही प्रवर्तमान मान लेगें तो सदा के लिये सभी पदार्थों में विना किसी भेदभाव से इन सब की प्रवृत्ति प्रसक्त होगी । 'विना किसी भेदभाव से ही बुद्धि और व्यवहार होते हैं। ऐसा है नहीं । इसलिये इन बुद्धि और व्यवहार के मूलनिमित्तभूत द्रव्यादि पदार्थ पारमार्थिक है - यह बात मान लेनी चाहिये ।
विधिवादी यहाँ अनुमानरूप प्रमाण भी दिखलाते हैं - एक दूसरे में असंकीर्ण प्रवृत्तिवाले जो बुद्धि-व्यवहार होते हैं वे पारमार्थिक निमित्तमूलक होते हैं जैसे श्रोत्रादिजनितबुद्धि । 'दण्डवाला' इत्यादि बुद्धि और शब्दव्यवहार भी असंकीर्णप्रवृत्ति वाले ही हैं - इस स्वभाव हेतु से उन में द्रव्यादिमूलकत्व की सिद्धि होती है । यदि इन बुद्धि और व्यवहारों को निर्निमित्त प्रवर्त्तमान मानेंगे तो विना किसी पक्षपात से सर्वत्र उन की प्रवृत्ति का अतिप्रसंग - यही द्रव्यादि को अपारमार्थिक मानने में बाधक प्रमाण है ।
तात्पर्य यह है कि - दण्डवाले पुरुष के विषय में 'दण्डी' ऐसी बुद्धि और शब्दव्यवहार होता है किन्तु शुक्लादि बुद्धि और शब्दव्यवहार नहीं होते । श्वेतरूपवाले अश्व के लिये 'शुक्ल' इत्यादि बुद्धि और व्यवहार होते हैं किन्तु 'दण्डी' इत्यादि नहीं होते । यही प्रवृत्ति की असंकीर्णता है । ऐसी असंकीर्णप्रवृत्ति से उन बुद्धि और व्यवहारों में पारमार्थिकनिमित्तमूलकता सिद्ध होती है । यदि कोई पारमार्थिकनिमित्त नहीं मानेंगे तो स्वच्छन्दरूप से दण्डी के लिये 'शुक्ल' और 'शुक्ल' के लिये 'दण्डी' ऐसी बुद्धि और व्यवहारों की संकीर्णप्रवृत्ति होने की आपत्ति होगी।
★ अपोहवाद में शब्दप्रतीति का निमित्त ★ इस विधिवाद के सामने अपोहवादी कहता है - इस अनुमान में जो सनिमित्तता साध्य है वह यदि पारमार्थिकबाह्यविषयभूत निमित्तता की सिद्धि के अभिप्राय से सिद्ध करना इष्ट हो तो हेतु में साध्यद्रोह दोष है। कारण, जहाँ साध्य का अभाव है वैसे भ्रान्त स्थलों में भी असंकीर्णबुद्धि-व्यवहार तो होते ही हैं । जैसे रजतत्व रूप बाह्यपारमार्थिक विषयरूप निमित्त न होने पर भी शुक्ति में रजत की भ्रमबुद्धि और भ्रान्तव्यवहार होता है । अत: निमित्त के विना भी बुद्धि और व्यवहार की प्रवृत्ति होने में कोई बाधक प्रमाण अलभ्य है । अगर किसी भी प्रकार के (यानी अपारमार्थिक) निमित्त के अभिप्राय से 'सनिमित्तता' की सिद्धि करना हो तो वैसा साध्य हमारे मत में भी सिद्ध होने से सिद्धसाध्यता दोष लगेगा। देखिये-हम भी 'दण्डी' इत्यादि बुद्धि और व्यवहारों के प्रति अन्तर्जल्पाकार तथाविध वासना के प्रबोध को निमित्तरूप में मानते हैं । पारमार्थिक
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org