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________________ १६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सम्बन्धो निर्दिष्टः, द्वितयमप्येतदयुक्तम्, प्रमाणबाधितत्वात् इति बौद्धाः । तथाहि-शब्दानां न परमार्थतः किंचिद् वाच्यं वस्तुस्वरूपमस्ति । सर्व एव हि शाब्दप्रत्ययो भ्रान्तः भिन्नेष्वर्थेप्वभेदाकाराध्यवसायेन प्रवृत्तेः। यत्र तु पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबन्धस्तत्रार्थसंवादो भ्रान्तत्वेऽपि । तत्र यत् तदारोपितं विकल्पबुद्ध्याऽर्थेष्वभिन्न रूपं तद् अन्यव्यावृत्तपदार्थानुभवबलाऽऽयातत्वात् स्वयं चान्यव्यावृतत्तया प्रतिभासनात् भ्रान्तैवान्यव्यावृत्तार्थेन सहैक्येनाऽध्यवसितत्वाद् अन्यापोढपदार्थाधिगतिफलत्वाच्च अन्यापोह इत्युच्यते, अतः 'अपोहः शब्दार्थः' इति प्रसिद्धम् । *अत्र विधिवादिनः प्रेरयन्ति - यदि भवतां द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्यादिलक्षणानि विशेषणानि शब्दप्रवृत्तिनिमित्तानि परमार्थतो न सन्ति, कथं लोके 'दण्डी' इत्याद्यभिधानप्रत्ययाः प्रवर्त्तन्ते द्रव्याधुपाधिनिमित्ताः ? तथाहि- "दण्डी' 'विषाणी' इत्यादिधीध्वनी लोके द्रव्योपाधिको प्रसिद्धौ, 'शुक्लः' 'कृष्णः' इति गुणोपाधिकौ, चलति' 'भ्रमति' इति कर्मनिमित्तौ, "अस्ति', 'विद्यते' इति सत्तानिमित्तकौ, 'गौः अश्वः' इति सामान्य-विशेषोपाधी, "इह तन्तुषु पटः' इति समवायनिमित्तः (नौ) । तत्रैषां द्रव्यादीनामभावे 'दण्डी' इत्यादिप्रत्यय-शब्दौ निर्विषयौ स्याताम् । न चाऽनिमित्तावेतौ युक्तौ, सर्वत्र तयोरविशेषेण भ्रमात्मक है क्योंकि पदार्थ अपने आप भिन्न भिन्न होते हुये भी उन में अभेदाकार अध्यवसाय से शब्दों की प्रवृत्ति होती है । यद्यपि वह भ्रमात्मक है फिर भी उस का अर्थ के साथ संवाद दीखता है, उस का कारण यह है कि परम्परया वह प्रतीति वस्तु के साथ सम्बन्ध रखती है । अब वहाँ उस काल में विकल्पबुद्धि से अर्थों में जिस अभिनरूप का (अभेदाकार का) आरोप होता है वही 'अन्यापोह' कहा जाता है । अन्य का अन्य से अपोह यानी व्यावर्त्तन - यही अन्यापोह है । उसे 'अन्यापोह' इस लिये कहते हैं कि १. वह अन्यव्यावृत्त यानी भिन्न पदार्थों के अनुभव के बल पर ही वहाँ आरोपित किया जाता है, २. अपने आप भी वह अन्य से व्यावृत्त रूप में ही व्यावृत्तपदार्थों के साथ एकरूप से अध्यवसित होता है, तथा उस के द्वारा फलरूप में अन्यापोढ यानी अन्यव्यावृत अर्थों की प्रतीति होती है । शब्दों से इस ढंग के अन्यापोह की प्रतीति होने से ही यह प्रसिद्धि बन गई है कि 'अपोह ही शब्दार्थ है' [जो कि तुच्छ एवं काल्पनिक है यह उत्तरपक्ष में बताया जायेगा ।] ★ 'दण्डी' इत्यादि शाब्दप्रतीति सनिमित्त* विधिस्वरूप यानी द्रव्यादिरूप शब्दार्थ मानने वाले यहाँ कहते हैं- जब आपके मत में शब्द की प्रवृत्ति के निमित्तभूत कोई द्रव्य, गुण, क्रिया, जाति आदि स्वरूप उपाधियाँ पारमार्थिक नहीं हैं, तो लोगों में द्रव्यादिरूप उपाधि के निमित्त से जो 'दण्डी' (दण्डवाला) इत्यादि शब्दव्यवहार और प्रतीतियाँ होती है यह कैसे घटेगा ? देखिये - (१) “यह दण्डवाला है - यह शींगवाला है" इत्यादि बुद्धि और शब्दव्यवहार दण्डादिद्रव्यात्मक उपाधिमूलक होते हैं - यह लोकप्रसिद्ध है। इसी तरह 'शुक्ल -कृष्ण' इत्यादि बुद्धि और व्यवहार शुक्लादिगुणमूलक होते हैं । “चलता है, घुमता है" इत्यादि चलनादिक्रियामूलक होते हैं । 'अस्ति = है' 'विद्यते= विद्यमान है' इत्यादि सत्तामूलक होते हैं । 'गाय-घोडा' इत्यादि गोत्वादि सामान्य-विशेष स्वरूप उपाधिमूलक होते हैं । (शाबलेयत्वादि की अपेक्षा सामान्यरूप और सत्तादि महासामान्य की अपेक्षा विशेषरूप होने से गोत्वादि जाति सामान्यविशेष उभयरूप है ।) “यहाँ तन्तुओं में वस्त्र" इत्यादि बुद्धि और व्यवहार समवायमूलक होते हैं । यदि ये दण्डादिद्रव्य * इदमपोहप्रकरणं तत्त्वसंग्रह- पंजिकायाम् का० ८६७ त: का० १२१२ दृष्टव्यम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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