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द्वितीयः खण्ड:-का०-३
३२९ प्रत्यभिज्ञानात्त्वभेदोऽध्यारोप्यमाणो दलितपुनरुदितनखशिखरादिष्विव प्रतिभासभेदेनाऽपाक्रियामाणो न वास्तवः । न चापरापरसंविन्मात्रव्यतिरिक्तभिन्नात्मनोऽभावे क्रमवत्संवेदनाभावादर्थक्रमस्याप्यभाव इति, यतोऽनेकत्वे सति यथा पूर्वापरयोरपत्ययोः क्रमस्तथा दर्शनयोरप्यनेकत्वमस्तीति कथं न क्रमः ? न चानेकत्वं न प्रतीतिविषयः एकत्वप्रतिभासाभावप्रतिभास्यानेकत्वप्रतिभासरूपत्वात् तस्य च संवेदनसिद्धत्वात् । न च कालमन्तरेण पौर्वापर्याभावादनेकत्वमात्रमवशिष्यते इति कथं क्रम इति वक्तुं युक्तम् यतो भेदाऽविशेषेऽपि दृश्यमान - स्मर्यमाणतया पौवापर्यसद्भावात् क्रमसंगतिरविरुद्धैव । यद्वा हेतुसंनिधानाऽसंनिधानाभ्यां क्रमः कार्याणाम् तत्संनिधानाऽसंनिधानेऽपि हेतुसंनिधानाऽसंनिधानात् इत्यनादिर्हेतुपरम्परा अतस्तत्स्वभावविशेष एव क्रम इति न किंचित् कालेन । तस्याप्यन्यकालापेक्षे क्रमेऽनवस्था, स्वतः क्रमे पदार्थानामपि स स्वत एव युक्तः । तदेवं क्रमेणोपलभ्यमानमपरापरस्वभावमिति सिद्धः स्वभावभेदः ।
न च क्षणिकेऽपि संवेदने युगपत् पदार्थजातं प्रतिभाति न क्रमेणेति न क्षणभेदः यतोऽनेकक्षणस्थितिः कालाभेदलक्षणं नित्यत्वमुच्यते, न चानेकक्षणस्थितियुगपदवभाति, यतो यदैका क्षणस्थितिरवभासते यदि तदैव द्वितीयक्षणस्थितिरपि तद्विविक्ता प्रतिभाति तथा सति क्षणद्वयस्य परस्परविविक्तस्य
*प्रत्यभिज्ञा के विषयों मे भेदसिद्धि* 'वही है जो पहले दिखा था' ऐसी प्रत्यभिज्ञा से अभेद का अध्यारोपण वास्तविक नहीं है क्योंकि वह प्रतिभासभेद से बाधित है । जैसे काटने के बाद पुन: उगने वाला नखाग्र 'वही दिखता है' किन्तु पूर्वप्रतिभास
और वर्तमान प्रतिभास भिन्न होने से नखाग्र में भेद सिद्ध है वैसे ही प्रतिभासभेद से प्रत्यभिज्ञा के विषय में भी भेद सिद्ध होता है क्योंकि प्रत्यभिज्ञा कोई एक प्रतिभासरूप नहीं किन्तु अनेक प्रतिभास रूप होती है। यदि ऐसा कहें कि - भेदवादी के मत में तो कोई एक अभिन्न आत्मा जैसा तत्त्व ही नहीं है सिर्फ भिन्न भिन्न संविद् ही होती है, उन संविदो में एक अनुस्यूत आत्मा न होने से किसी क्रम के होने का सम्भव नहीं है अत: संवेदन पर अवलम्बित अर्थों का क्रम भी नहीं रहेगा' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अनेक होने पर भी पूर्वजात एवं उत्तरजात शिशुओं में क्रम होता है वैसे अनेक होते हुये दर्शनों में भी क्रम क्यों नहीं हो सकता ?
★काल विना भी पूर्वापरभाव-क्रम का उपपादन★ अनेकत्व अनुभवगोचर ही नहीं है तो भेद कैसे सिद्ध होगा ऐसा प्रश्न नहीं करना चाहिये, क्योंकि एकत्वानुभव का न होना यही अनेकत्वानुभवरूप है और वह संविदित होता है इस लिये असिद्ध नहीं है। यदि ऐसा कहें कि - पूर्वापरभाव तो कालाश्रित है, आप के मत में तो अर्थातिरिक्त काल ही नहीं है तो फिर अनेकत्व ही सिर्फ रहेगा, क्रम कैसे सिद्ध होगा ? - तो यह प्रश्न ठीक नहीं क्योंकि पहला अर्थ और दूसरा अर्थ भिन्न भिन्न है उन में जो स्मृति का विषय होता है वही पूर्व है और दर्शन का विषय होता है वह अपर होता है - इस प्रकार पौर्वापर्यभाव बैठ जाने से क्रम की संगति में कोई विरोध नहीं है । अथवा तो कार्यों में हेतु के संनिधान और असंनिधान को लेकर भी क्रम-संगति बैठायी जा सकती है। कैसे यह देखिये - हेतु के संनिधान से कार्य का संनिधान होता है, हेतु संनिहित न हो तो कार्य भी संनिहित नहीं होता - यह सर्वविदित नियम है । हेतु और कार्य में स्पष्ट ही है कि हेतु पूर्व होता है और कार्य अपर होता है, हेतुपरम्परा अनादि
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