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श्री सम्मति-तम्रकरणम् न चार्थाऽव्यभिचारित्वप्रामाण्यनिश्चयवता ततः प्रर्वतमानानां प्रेक्षापूर्वकारिताक्षतिः । न चानाप्तप्रणीत सरित्तटपर्यस्तगुडशकट'वाक्यविशिष्टतानवगमाद् नातः प्रवृत्तिः, प्रत्यक्षाभासात् प्रत्यक्षस्येवाऽनाप्तप्रणीतवाक्यादस्य विशिष्टतावसायात्, यस्य तु न तद्विशिष्टावसायो नासावतः प्रवर्त्तते अनवधृतहेत्वाभासविवेकाद्धेतोरिवाऽनुमेयार्थक्रियार्थी । न चाप्तानां परहितप्रतिबद्धप्रयासाना प्रमाणभूतत्वात् स्ववाङ्मात्रेण प्रवर्त्तयितुं प्रभवता प्रयोजनवाक्योपन्यासवैयर्थ्यम्, सुनिश्चिताप्तप्रणीतवाक्यादपि प्रतिनियतप्रयोजनार्थिना तदुपायाऽनिश्चये तत्र प्रवृत्त्ययोगात् । न च प्रयोजनविशेषप्रतिपादकवाक्यमन्तरेणाप्तप्रणीतशास्त्रस्यापि तद्विशेषप्रतिपादकत्वनिश्चयः येन तत एव तदर्थिनां तत्र प्रवृत्तिः स्यात्, तदनभिमतप्रयोजनप्रतिपादकानामपि तेषां सम्भवात् । ही चाहिये, जैसे प्रत्यक्ष को माना जाता है ।
*आप्त-अनाप्त के वाक्यों में विशेषता का बोध* शब्द से प्रवृत्ति करने वाले में बुद्धिपूर्वक कार्यकारित्व गुण की क्षति का निरूपण भी ठीक नहीं, क्योंकि जिन शब्दों में अर्थाविसंवादित्वरूप प्रामाण्य का निश्चय हो जाय उन शब्दों से प्रेरणा पा कर प्रवृत्ति करने वाले प्रेक्षावान् पुरुषवर्ग बुद्धिपूर्वक ही प्रवृत्ति करते हैं । यदि ऐसा कहें कि - "कोई अनाप्त विश्वासहीन पुरुष नदीतट पर गुडपूर्ण बैलगाडा खडा है जिस को चाहे वह ले आवे-ऐसा बोल दे तो उस के वाक्य से कोई गुड लेने के लिये दौडने की प्रवृत्ति नहीं करता है । ठीक उसी तरह आपके अभिमत आप्तपुरुष के बोल में भी अनाप्त पुरुष भाषित बोल से कुछ भी तफावत मालूम न पड़ने से, उस के वाक्य से भी किसी की प्रवृत्ति हो नहीं सकेगी" - तो यह भी सच नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षाभास इन दोनों के तफावत को जैसे लोग जान लेते हैं वैसे ही आप्त पुरुष के और अनाप्त पुरुष के वाक्यों में भी बुद्धिमान् लोग तफावत जान ले सकते हैं । हाँ, इतना सच है कि जिस व्यक्ति को तफावत का बोध न होगा वह उस वाक्य से प्रवृत्ति नहीं करेगा, उदा.- अनुमेय अर्थ से साध्य अर्थक्रिया का अर्थी होने पर भी जिस को हेतु में हेतु-आभासभिन्नता का बोध नहीं रहेगा उस की उस अनुमेय अर्थ में प्रवृत्ति नहीं होगी क्योंकि उस को अपनी अनुमिति का हेतु सद्धेतु है या असत् है उस में संदेह होने से अनुमिति के प्रामाण्य में भी संदेह रहेगा।
यदि ऐसा कहें कि - "आप्त पुरुष तो दूसरों के हित करने में सदा तत्पर, प्रयत्नशील रहते हैं और वे स्वत: प्रमाणभूत होने का लोगों को विश्वास भी रहता है, अत: वे तो अपने वचनमात्र से दूसरों को तत्तत् कार्यों में प्रवृत्ति करने की क्षमता रखते हैं, ऐसी स्थिति में प्रयोजन के सूचक वाक्य का उपन्यास करना व्यर्थ हैं ।"- तो यह भी ठीक नहीं है । कारण, आप्त पुरुष का वाक्य चाहे कितना भी सुनिश्चित प्रामाण्यवाला हो, किन्तु जिस व्यक्ति को अपना कुछ न्यारा ही प्रयोजन है उस व्यक्ति को जब तक 'वह आप्तकथित वाक्य स्वप्रयोजन का उपाय है' ऐसा निश्चय किसी प्रयोजनवाक्यादि से न होवे, तब तक कैसे वह अपने प्रयोजन के लिये प्रवृत्ति करेगा ? प्रयोजनविशेष के सूचक वाक्य के बिना 'आप्तकथित शास्त्र अपने इष्ट प्रयोजनविशेष का व्युत्पादक है,' ऐसा निश्चय ही नहीं हो सकता तो फिर उस शास्त्र से उस प्रयोजन के अर्थीयों की उस प्रयोजन के लिये प्रवृत्ति होने की संभावना ही कहाँ रही ? शास्त्रों तो अनेक है उन में कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जिनमें अपने इष्ट प्रयोजन का व्युत्पादन न भी किया गया हो । हर कोई शास्त्र अपने इष्ट प्रयोजन का ही व्युत्पादक हो ऐसा कोई नियम नहीं है।
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