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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ अत एव "शास्त्रार्थप्रतिज्ञाप्रतिपादनपरः आदिवाक्योपन्यासः" [ ] इत्यायपि प्रतिक्षिप्तम्, अप्रमाणादादिवाक्यात् तदसिद्धेः । तथा, सम्बन्धाऽभिधेयप्रत्यायनपराण्यपि वाक्यानि शास्त्रादौ वाङ्मात्रेण निश्चयाऽयोगानिष्प्रयोजनानि प्रतिक्षिप्तान्येव, उक्तन्यायस्य समानत्वात् । तदयुक्तम् - 'समय' • इत्यादि-अभिधेयप्रयोजनप्रतिपादकम् गाथासूत्रम् ।
[आदिवाक्यस्य सार्थकता - उत्तरपक्षः ] अत्र प्रतिविधीयते - यदुक्तम् 'न प्रत्यक्षमनुमानं वा शब्दः' तत्र सिद्धसाध्यता, प्रत्यक्षानुमानलक्षणाऽयोगात् तत्र । यच्च 'नापि शब्दः प्रमाणम् बहिरर्थे तस्य प्रतिबन्धवैकल्येन, विवक्षायां तु प्रतिबन्धेऽपि यथाविवक्षमाऽसम्भवात्' तदप्यसारम् बाह्यार्थेन शब्दप्रतिबन्धस्य प्रसाधयिष्यमाणत्वात् तत्रैव च प्रतिपत्ति-प्रवृत्त्यादिव्यवहारस्योपलभ्यमानत्वाद् बाह्यार्थे एव शब्दस्य प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यं प्रत्यक्षवत् ।
निरर्थकतापक्षी : ऐसा आप नहीं कह सकते । कारण, अगर शास्त्र के श्रवण से भी इस प्रकार प्रयोजनबोध शक्य है तो फिर शास्त्र के प्रारम्भ में प्रयोजनवाक्य का उपन्यास करने से क्या फायदा ? प्रयोजनवाक्य तो व्यर्थ ही साबित हुआ । और इसलिये कुछ लोग जो यह कहते हैं कि "आदि वाक्य का उपन्यास शास्त्रगत प्रयोजन की प्रतिज्ञा का निर्देश करने वाला है" यह भी निराकृत हो जाता है, चूँकि वाक्य का प्रामाण्य असिद्ध है, अत एव आदिवाक्य भी अप्रमाणभूत होने से, उस के द्वारा किसी भी प्रतिज्ञा का निर्देश हो नहीं सकता।
उपरोक्त रीति से जब प्रयोजनसूचक आदिवाक्य स्वयं निष्प्रयोजन होने से निराकृत हो गया तो उसी प्रकार शास्त्र के प्रारम्भ में सिर्फ वचनमात्र से सम्बन्ध का या अभिधेय अर्थ का प्रतिपादन करने के लिये उपन्यास किये गये वाक्य भी तत्तदर्थ के निश्चायक न होने के कारण सप्रयोजन सिद्ध न होने से निराकृत हो जाते हैं, क्योंकि उनको भी अप्रमाणभूत सिद्ध करने वाली युक्ति यहाँ भी समानरूप से सम्बद्ध है। साराश अभिधेय और प्रयोजन के प्रतिपादनार्थ कहा गया समयवित्थर...इत्यादि आप का द्वितीय गाथासूत्र अयुक्त सिद्ध होता है । [पूर्वपक्ष समाप्त
★ उत्तरपक्ष-आदिवाक्य सार्थक है* अब यहाँ आदिवाक्य की सार्थकता को सिद्ध करने के लिये निरर्थकतावादी की ओर से प्रयुक्त वाद का प्रतिवाद किया जाता है।
वादीने जो पहले कहा था कि शब्द यह कोई प्रत्यक्ष प्रमाण या अनुमानप्रमाण रूप नहीं है - यह तो हमारे सिद्ध मत को ही आपने समर्थन कर दिया कि प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों में से किसी भी प्रमाण का लक्षण शब्दप्रमाण में मौजूद नहीं है । यह जो आपने कहा है - शब्द स्वयं कोई प्रमाणरूप नहीं है, क्योंकि शब्द का अर्थ के साथ कोई प्रतिबन्ध = सम्बन्ध ही नहीं है । कदाचित् विवक्षा के साथ शब्द का सम्बन्ध मान ले, फिर भी विवक्षा के अनुसार विश्व में अर्थ का सद्भाव कभी नहीं होता, इस लिये शब्द का विवक्षा के द्वारा भी प्रामाण्य नहीं घट सकता - यह कथन भी नि:सार है । कारण, शब्द का बाह्य अर्थ के साथ व्यवस्थित प्रतिबन्ध मौजूद है यह आगे जरूर सिद्ध किया जाने वाला है । उपरांत, जिस अर्थ की विवक्षा से शब्द का प्रयोग किया जाता है उसी अर्थ का शब्द से बोध होता है और उसी अर्थ में श्रोता की प्रवृत्ति आदि व्यवहार भी होता है, यह सर्वत्र देखा जाता है इसलिये शब्द को बाह्य अर्थ के बोधकरूप में प्रमाण मानना
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