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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तथाहि - परस्परविविक्तसामान्य-विशेषविषयत्वाद् द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकावेव नयौ । न च तृतीयं प्रकारान्तरमस्ति यद्विषयोऽन्यस्ताभ्यां व्यतिरिक्तो नयः स्यात् । तृतीयविषयस्य चाऽसम्भवो भेदाभेदविनिर्मुक्तस्य भावस्वभावस्यापरस्यानुपपत्तेः । 'ताभ्यामन्य एकस्तद्वानर्थोऽस्ति' इति चेत् ? न, स्वभावान्तराभावात् प्रकृतविकल्पानतिवृत्तेः तत्स्वभावातिक्रमे वा खपुष्पसदृशत्वप्रसक्तेः । ताभ्यां तद्वतोऽर्थान्तरस्य सर्वथा अथवा 'मयूख्यसकादयः' (२-१-७२) इस पाणिनि० सूत्र के अनुसार भी यहाँ द्रव्य और आस्तिक शब्द का समास बन सकता है।
मूलगाथा में 'दव्वढिओ' शब्द अर्धमागधीभाषा में है, उस का संस्कृत भाषा में द्रव्यास्तिक, द्रव्यार्थिक अथवा द्रव्यस्थित ऐसे तीन शब्दान्तर बन सकते हैं। द्रव्यास्तिक की बात हो गयी। द्रव्य ही जिसका अर्थ यानी प्रयोजन है (अर्थात् प्रधानरूप से प्रतिपाद्य है) वह 'द्रव्यार्थिक' है । अथवा द्रव्य में स्थित (यानी द्रव्य के विषय में स्थान करने वाला- रुचि रखने वाला) हो वह 'द्रव्यस्थित' नय है ।
*पर्यायास्तिक व्युत्पत्ति आदि ★ पर्यायास्तिक के लिये गाथा में पज्जवणओ = पर्यवनय: शब्दप्रयोग किया है । इसमें 'पर्यव' शब्द की व्युत्पत्ति 'परि = समन्तात्, अवनम् = अव: पर्यवः' ऐसी की गयी है। परि और अब ये दो शब्द मिल कर पर्यव शब्द बना है । परि यानी समन्तात्, इसका अर्थ है सब ओर से, पूर्णरूप से अथवा पूरी तरह से । 'अव' शब्द अव् धातु से बना है जिस का मतलब है रक्षा करना, प्रसन्न करना , पसंद करना, जानना इत्यादि । पूरा अर्थ हुआ-पूरी तरह से यानी सूक्ष्मता से जान करने वाला । इस लिये पर्यव शब्द का यहाँ व्याख्या में 'विशेष' अर्थ कहा है क्योंकि वह बारिकाई से जाना जाता है । पर्यव यानी विशेष को जानने वाला अथवा दिखाने वाला जो नय वह पर्यवनय है । नय-नयन-नीति ये तीनों समानार्थक शब्द हैं । हालाँकि द्रव्यास्तिक की तरह यहाँ पर्यायास्तिक ऐसा शब्दप्रयोग करना जरूरी था, लेकिन ‘पञ्जवणओ य' के बदले ‘पज्जवडिओ य' ऐसा कहने पर एक मात्रा के बढ जाने से छंद तूट जाने का भय है इस लिये 'पज्जवणओ अ' ऐसा कहा है । अत: पर्यायास्तिक का शब्दतः प्रयोग न करके अर्थत: प्रयोग हुआ है, तब पर्यायास्तिक समास का विग्रह भी पूर्ववत् द्रव्यास्तिक पद की तरह समझ लेना चाहिये, जैसे कि पर्याय में ही 'अस्ति' ऐसी जिस की मति है वह पर्यायास्तिक । द्रव्यास्तिक नय द्रव्य यानी सामान्य के प्रस्तार का अर्थात् नैगम-संग्रह-व्यवहार नयों के प्रतिपाद्य अर्थ का मूल ज्ञाता-वक्ता है इसी तरह पर्यायास्तिक नय विशेषप्रस्तार का यानी ऋजुसूत्र- शब्द-समभिरूढ और एवंभूत नयों के मुख्य प्रतिपाद्य अर्थ का मूल ज्ञाता-वक्ता है ।
प्रश्न :- आपने मूलव्याकरण (=निरूपण) करनेवाला इस अर्थ में एकवचनान्त इन्प्रत्ययान्त मूलव्याकरणी शब्द का प्रयोग क्यों किया है, जब कि वह द्रव्यार्थिक और पर्यवनय दोनों अभिधेयों का विशेषण है तो द्विवचन 'मूलव्याकरणिनौ' ऐसा क्यों नहीं कहा ?
उत्तर :- जरूर नहीं है, क्योंकि 'मूल व्याकरणी' शब्द का अन्वय 'दबडिओ' एवं 'पज्जवणओ' दोनों के साथ अलग अलग करके दो वाक्य की निष्पत्ति करना है। इसी अभिप्राय से सूत्र में 'दवढिओ य पज्जवणओ य' ऐसे दो च(य) का निर्देश किया गया है ।
गाथा का अन्तिम पाद है - 'सेसा वियप्पा सिं' इसका मतलब है शेष नैगमादिनय इन दोनों के
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