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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-३ २६५ तृतीयगाथा सव्याख्या अत्र च कुण्ठधियोऽप्यन्तेवासिनो योगित्वा(?ता)प्रतिपादनार्थः प्रकरणारम्भः प्रतिपादितः, सा च विशिष्टसामान्यविशेषात्मकतदुपायभूतार्थप्रतिपादनमन्तरेणातः प्रकरणान सम्पद्यते - इति प्रकरणाभिधेयं योगितोपायभूतमर्थम् - तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणी। दबढिओ य पज्जवणयो य सेसा वियप्पा सिं ॥३॥ इत्यनया गाथया निर्दिशति । अस्याश्च समुदायार्थः पातनिकयैव प्रतिपादितः । अवयवार्थस्तु - तरन्ति संसारार्णवं येन तत् तीर्थम् = द्वादशांगम् तदाधारो वा संघः । तत् कुर्वन्ति उत्पद्यमानमुत्पादयन्ति तत्स्वाभाव्यात् तीर्थकरनामकर्मोदयाद् वेति 'हत्वाद्यर्थे टच्' [ ]। तीर्थकराणां वचनम् = आचारादि अर्थतस्तस्य तदुपदिष्टत्वात्, तस्य संग्रह-विशेषौ द्रव्य-पर्यायौ सामान्यविशेषशब्दवाच्यावभिधेयौ, तयोः प्रस्तारः = प्रस्तीर्यते येन नयराशिना संग्रहादिकेन स प्रस्तारः - तस्य संग्रहव्यवहारप्रस्तारस्य मूलव्याकरणी आद्यवक्ता ज्ञाता वा द्रव्यास्तिकः - द्रुतिर्भवनं द्रव्यम् ★ तृतीयगाथाव्याख्यारम्भ ★ __इस काल में जड बुद्धिवाले विद्यार्थी में गूढार्थग्रहणपटुतास्वरूप योग्यता का आधान करने के लिये आचार्यश्री ने इस प्रकरण रचना में प्रवृत्ति करने का संकल्प पहले प्रगट किया है । उक्त योग्यता की प्राप्ति के लिये सामान्य-विशेषात्मक विशिष्ट कोटि की वस्तु की जानकारी आवश्यक है। इस प्रकरण के प्रारम्भांश में सामान्य विशेषात्मक वस्तु का प्रतिपादन किये विना उक्त जानकारी के अभाव में इस प्रकरणरचना से योग्यता का आधान सम्भव नहीं है । अत: योग्यता के आधान के लिये प्रकरण के मुख्य एवं आद्य अभिधेय रूप अर्थ का निर्देश तीसरी गाथा से मूलग्रन्थकार ने किया है । व्याख्याकार महर्षि ने इस गाथा की अवतरणिका से ही यह स्पष्ट कर दिया है कि इस गाथा में सामान्यविशेषात्मक विशिष्ट अर्थ का निरूपण = निर्देश किया गया है । * मूल गाथा का शब्दार्थ ★ तीर्थंकरों के वचनों के प्रतिपाद्य संग्रह यानी सामान्य एवं विशेष (अर्थात् द्रव्य-पर्याय) के प्रस्तार का (यानी विस्तार का) मूल व्याकरण (प्रतिपादन अथवा ज्ञान) करने वाला एक तो द्रव्यास्तिक नय है और दूसरा पर्यायार्थिक नय, शेष नैगमादि इन दोनों के ही प्रभेद हैं ॥३॥ प्रश्न : व्याख्याकार ने अवतरणिका में कहा कि इस गाथा में सामान्यविशेषात्मक वस्तु का निर्देश है, जब कि मूलगाथा में तो द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय का निर्देश है, ऐसा विसंवाद क्यों प्रतीत होता है ? ___उत्तर : विसंवाद नहीं है । मूल ग्रन्थकार का मनोगत अभिप्राय सामान्य-विशेषात्मक वस्तु का निर्देश करने का ही है, किन्तु द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक मूल नय युगल के प्रतिपादन के विना सामान्य-विशेषात्मक वस्तु का व्युत्पादन सम्भव नहीं है इसी लिये उन्होंने नययुगल का निर्देश किया है। प्रश्न :- वस्तु तो सामान्यविशेषोभयात्मक है इसलिये उभयात्मक वस्तु प्रतिपादन करने वाले नय का निर्देश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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