________________
२६४
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् विज्ञानस्य प्रामाण्यमभ्युपगच्छता नाऽप्रतिभासेऽप्यर्थस्य प्रवृत्त्यादिव्यवहारः कदाचनाप्यभ्युपगन्तुं युक्तः । प्रतिबन्धस्तु तदविसंवादे शाब्दस्याप्यर्थप्रतिबन्धनिबन्धनः तत्र संवादोऽस्तीति प्रत्यक्षवत् तत्र तस्य प्रामाण्यं युक्तम्, न च प्रतिबन्धः परपक्षे सम्भवतीति प्रतिपादयिष्यते, स्वसंवेदनमात्रं च परमार्थसत् तत्त्वरूपं निरस्तप्रतिबन्धादिपदार्थं यथा न सम्भवति इत्येतदपि प्रतिपादयिष्यते । शेषस्त्वत्र पूर्वपक्षग्रन्थः प्रतिपदमुचार्य न प्रतिविहितः ग्रन्थगौरवभयात् दिग्मात्रप्रदर्शनपरत्वाच्च प्रयासस्य ।
इति स्थितमेतत् 'समयपरमत्थवित्थर' इति । बाह्यार्थस्पर्शमुक्त होता है इस लिये उस में सर्वात्मना अर्थग्रहण होने का यानी विजातीयव्यावृत्तरूप की तरह सजातीयव्यावृत्तरूप से भी अर्थग्रहण होने का दोष नहीं है ।'- यह विधान भी असंगत है क्योंकि ऐसे तो प्रत्यक्ष में बाह्यार्थस्पर्शिता होने पर भी सर्वात्मना अग्रहण का जैसे संभव है वह पहले बताया है । तात्पर्य, बाह्यार्थ असंस्पर्श से ही सर्वात्मना अग्रहण होता है यह सच नहीं है । यह जो कहा था कि [१४९ -१७] - 'शब्द से अर्थ का प्रतिभास न होने पर भी उसकी भ्रान्ति से ही अर्थविषयक प्रवृत्ति होती है'- यह विधान भी गलत है क्योंकि भ्रान्तिजन्य प्रवृत्ति और अभ्रान्त प्रवृत्ति में बहुत अन्तर होता है जिस से भ्रान्ति-अभ्रान्ति का निर्णय फलित होता है। जैसे ज्ञान होने के बाद प्रवृत्ति करने पर जब वहाँ अर्थ की प्राप्ति नहीं होती है उस प्रवृत्ति के विसंवादी होने से उस का जनक ज्ञान भ्रान्तिरूप माना जाता है, जब कि अर्थप्रापक संवादी प्रवृत्ति होने पर उस के जनक ज्ञान को अभ्रान्तिरूप माना जाता है । अत: किसी एक ज्ञान में प्रामाण्यस्वीकार चाहने वाले को अर्थप्राप्ति होने पर भी अर्थप्रतिभास के विना ही शब्द से प्रवृत्ति आदि व्यवहार हो जाने की बात का समर्थन कभी नहीं करना चाहिये । शाब्द स्थळ में अर्थप्राप्ति के साथ अविसंवादी प्रवृत्ति के प्रतिबन्ध का आधार शाब्दबोध के साथ अर्थप्रतिबन्ध ही होता है । प्रत्यक्ष में भी प्रवृत्तिसंवाद से ही प्रामाण्यस्वीकार होता है ऐसे ही शाब्दस्थल में भी प्रवृत्तिसंवाद से प्रामाण्यस्वीकार अनिवार्य है। बौद्ध वादी सिर्फ निर्विकल्प को ही प्रमाण मानता है किन्तु वहाँ वास्तव में प्रतिबन्ध होता नहीं यह बात आगे चल कर दिखायी जायेगी । उपरांत, विज्ञानवादी जो कहता है कि प्रतिबन्ध आदि पदार्थों की सम्भावना को अपास्त करने वाला एक मात्र स्वसंवेदन विज्ञान ही तत्त्वभूत एवं पारमार्थिक सत् पदार्थ है'- यह मत भी कैसे सम्भवबाह्य है यह आगे चल कर दिखाया जायेगा।
यहाँ उत्तरपक्ष के निरूपण में बहुत कुछ पूर्वपक्ष के विधानों की उनके उल्लेख के साथ आलोचना की गयी है, किन्तु एक एक पंक्ति का उच्चार करके संपूर्ण पूर्वपक्ष का प्रतिविधान ग्रन्थगौरव के भय से ही नहीं किया है, इसका कारण यह है कि व्याख्याकार का यह प्रयास दिशासूचन के लिये है।
अपोहवादनिरसन की चर्चा से अब यह निर्दोषरूप से सिद्ध होता है कि मूलग्रन्थकार ने जो दूसरी गाथा में- समय परमार्थ विस्तार प्रकाशन करने वाले विद्वानों की पर्युपासना के लिये मन्दबुद्धि श्रोता भी प्रयत्न शील बने ऐसे अर्थ का मैं प्रतिपादन करुंगा- ऐसा कहा है इस विधान में कहीं भी अपोहवादी के मतानुसार शंकित दोषों को अवकाश नहीं है, इसलिये वह विधान निर्बाध-निर्दोष एवं यथार्थ है।
अपोहवाद निराकरण- उत्तरपक्ष समाप्त
द्वितीयगाथा विवरण समाप्त
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org