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________________ २२५ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ -"अनुपकारकस्यानपेक्षणीयत्वात्, सामान्योपकारे ततस्तज्ज्ञानस्यैवोपकारः किं नेप्यते ? किं सामान्योपकारेण ? भिन्नानामेकार्थक्रिया न सम्भवतीति सामान्यमेकमिष्टम्, ताश्चेद् व्यक्तयो नानात्वेऽप्येकं सामान्यमुपकुर्वन्ति कस्तासां तज्ज्ञानेनापराधः कृतः यतस्तास्तज्ज्ञानमेव नोपकुर्वन्ति ? कार्यश्च तासां प्राप्तः सामान्यात्मा, ततो लभ्यातिशयस्यानन्तरत्वात्, अर्थान्तरत्वे सम्बन्धानुपपत्तिः" - इत्यप्यचोद्यम्, यतो न भिन्नानामेकार्थक्रियाविरोधात् सामान्यमिष्टम् किन्तु भिन्नेष्वभिन्नाभासात् साक्षादर्पिततदाकारा बुद्धिः सामान्यमन्तरेणेन्द्रियबुद्धिवन्न सम्भवतीत्यभिन्नसामान्यवादिभिः सामान्यमिष्टम् । यदि वा(चा)ऽऽधिपत्यमात्रेणेन्द्रियादीनां रूपत्वाभावेऽपि रूपज्ञानजननवदिहापि व्यक्तीनामाधिपत्यमात्रेणोपयोगोऽभ्युपगम्यते तदा व्यक्तिप्विन्द्रियादिवदर्पिततदाकारा बुद्धिरभिन्नप्रतिभासिनी न स्यात् । न च स्वलक्षणस्य विकल्पबुद्धावप्रतिभासनात् नैवार्पिततदाकारा बुद्धिरभिन्नप्रतिभासिनीति वक्तव्यम्, 'विकल्पाः स्वलक्षणविषया न सन्ति' न होने पर भी कोई एक वेम होता है तभी वस्रोत्पत्ति होती है उसके अत्यन्ताभाव होने पर नहीं होती । इसी तरह एक एक प्रतिनियत व्यक्ति के न होने पर सामान्य से ज्ञान उत्पन्न होता है इस का यह मतलब नहीं है कि केवल सामान्य ही ज्ञानोत्पत्ति का हेतु है । अन्यतमव्यक्ति सापेक्ष सामान्य में ही ज्ञानजनन सामर्थ्य होता ★ सामान्य के विना समानाकार बुद्धि का असंभव ★ बौद्ध :-यहाँ एक आशंका है कि सापेक्षता का अर्थ है उपकार होना । जो उपकार नहीं करता उस की कहीं भी अपेक्षा नहीं की जाती । यह उपकार सामान्य के ऊपर नहीं किन्तु ज्ञान के ऊपर होता है । ज्ञान के बदले सिर्फ सामान्य के ऊपर उपकार मानने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि सामान्य के ऊपर उपकार के द्वारा ज्ञानोपकार तो मानना ही होगा तो फिर सीधा ही ज्ञानोपकार क्यों न मानना ? सामान्योपकार की क्या आवश्यकता है ? भिन्न भिन्न व्यक्तियों से एक अर्थक्रिया सम्भवित नहीं है ऐसा समझ कर ही आप अनेकव्यक्तिअनुस्यूत एक सामान्य को स्वीकारते हैं । तब यहाँ प्रश्न होना सहज है कि जब व्यक्ति-व्यक्ति में भेद होने पर भी ज्ञानोत्पत्ति के लिये जाति के ऊपर उपकार करते हैं तो उस ज्ञान ने ही उन व्यक्तियों का क्या बिगाडा है कि व्यक्तियों का ज्ञान के ऊपर सीधा उपकार नहीं होता ? दूसरी बात यह है कि यदि अपेक्षात्मक 'व्यक्तिकृत अतिशय' जाति के ऊपर होने का जो माना जाता है वह अतिशय यदि जाति से अभिन्न है तो, अतिशयरूप उपकार व्यक्तिजन्य होने से तदभिन्न जाति भी व्यक्तिजन्य हो जायेगी । यदि व्यक्तिकृत अतिशय जाति से भिन्न मानेंगे तो उस का जाति के साथ कोई सम्बन्ध न बन सकेगा। . स्याद्वादी :- ऐसा दूषण अप्रयोज्य है । कारण, भिन्न भिन्न व्यक्ति से एक अर्थक्रिया असम्भवित होने से एक सामान्य की कल्पना हम करते हैं ऐसी बात ही नहीं । हमारा मत यह है कि भिन्न भिन्न व्यक्तियों में भी अभेद का भास होता है उसके फलस्वरूप अभेदाकार विशिष्ट अपरोक्ष बुद्धि उत्पन्न होती है, यह बुद्धि एक अनुस्यूत सामान्यात्मक आलम्बन के विना ठीक उसी तरह नहीं हो सकती जैसे घटादि आलम्बन के विना तद्विषयक साक्षात् बुद्धि नहीं होती । अब आप समझ गये होंगे कि हम अभिन्न एक सामान्य के पक्षकार क्यों एक सामान्यभूत पदार्थ का स्वीकार करते हैं ! बौद्ध :- जैसे इन्द्रिय-मन: आदि में कोई एक रूपत्वसामान्य न होने पर भी सिर्फ एक प्रकार के आधिपत्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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