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________________ २२४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् पमेव कार्यम् यतस्तदभावादवस्तुत्वं स्यात् यावता विज्ञानलक्षणमपि कार्यमर्थानामस्तीति कथं तत्करणेऽपि सामान्यस्याऽव- स्तुत्वम् शब्दाद्यन्तक्षणवत् ? अथ केवलादेव सामान्यात् तदाहिज्ञानसद्भावे तदेव तेन गृह्यते न कदाचिद् व्यक्तिरिति व्यक्तेस्तत्सम्बन्धित्वेनाऽग्रहणाद् न व्यक्तौ ततः प्रवृत्तिः स्यात्, व्यक्तिसहायात् सामान्यात् तज्ज्ञानोत्पत्तौ कथं व्यक्तीनामेकज्ञाने प्रत्येकं तासामभावेऽपि सामान्यसद्भावभाविनि सामर्थ्यावधारणम् ? इत्युभयथाऽपि ज्ञान-क्रियाऽसम्भवात् कथं तथापि तद्वस्तुत्वम् ? असदेतत्, व्यक्तीनामन्यतमव्यक्तिसव्यपेक्षस्यैव सामान्यस्य तत्र सामर्थ्यात् कुविन्दादेरिवान्यतमवेमाऽपेक्षस्य, न हि प्रत्येक वेमाऽभावे कुविन्दः पटं करोतीति कुविन्दादेव पटोत्पत्तिः वेमरहितादनुत्पत्तेः । एवमेकैकव्यक्त्यपाये विज्ञानोत्पत्तावपि न केवलमेव सामान्यं तद्धेतुः अन्यतमव्यक्त्यपेक्षस्यैव सामर्थ्यात् । *नित्य सामान्य के वस्तुत्व का समर्थन * __ अक्षणिक भाव नित्य होने पर भी अर्थक्रियाकारी हो सकता है यह तथ्य अब प्रकट हो गया है, तब जो सामान्य के विरोध में कहा जाता है कि- 'नित्य होने के कारण सामान्य में अर्थक्रिया सम्भव न होने से वह अवस्तु है - यह परास्त हो जाता है । यदि यह कहा जाय- 'नित्यता के आधार पर हम सामान्य में अर्थक्रिया का निषेध नहीं करते किन्तु सामान्य के द्वारा किसी भी कार्य का जन्म संभव नहीं है इस लिये उसमें अर्थक्रिया का निषेध करते हैं । यह सुविदित है कि भारवहन दोहनादि क्रिया जातिजन्य नहीं होती । जाति तो सर्वत्र एक होती है फिर भी कभी अल्पभारवहन, अतिभारवहनादि भिन्न भिन्न कार्य देखे जाते हैं, अत: वे जातिजन्य नहीं हो सकते । यदि जाति में भी कुछ विशेषता को मान्य करेंगे तो उस का एकत्व खंडित हो जायेगा ।'- ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि दुनिया में वाह-दोहनादि सिर्फ ज्ञानभिन्न ही कार्य नहीं होते, जिन के न कर सकने से सामान्य अवस्तु बन जाय । अरे ! ज्ञानोत्पत्ति भी अर्थक्रियारूप है, जैसे बीजली-शब्दादि के अन्त्य क्षण को सिर्फ योगिज्ञान के जनक होने से वस्तुभूत मानते हो ऐसे ही सामान्य भी स्वविषयक ज्ञान का जनक होने से वस्तुभूत है, अवस्तु कैसे ? ★ जाति की ज्ञानजनकता का उपपादन ★ बौद्ध :- सामान्यग्राहि ज्ञान, व्यक्ति के सहकार से उत्पन्न होगा या व्यक्ति विनिर्मुक्त केवल जाति से ? यदि केवल जाति से उत्पन्न होगा तो वह तज्जन्य होने से केवल जाति का ही ग्राहक होगा, व्यक्ति का नहीं । फलत: जाति के सम्बन्धिरूप में भी व्यक्ति का ग्रहण न होने से, व्यक्ति के विषय में किसी की प्रवृत्ति ही नहीं होगी । यदि व्यक्ति के सहकार से सामान्यजन्य ज्ञान उत्पन्न होगा तो जहाँ जहाँ सामान्यजन्य ज्ञान उत्पन्न होता है वहाँ सर्वत्र नियत एक व्यक्ति नहीं होती, कभी एक व्यक्ति और कभी दूसरी व्यक्ति होती है, इस स्थिति में प्रतिनियत व्यक्ति के अभाव में सामान्य में ज्ञानजनन सामर्थ्य कैसे तय होगा ? स्याद्वादी :- प्रतिनियत व्यक्ति सर्वत्र न होने पर भी इतना तो तय हो सकता है कि अन्यतम (=कोई भी एक) व्यक्ति सापेक्ष ही सामान्य ज्ञानोत्पत्ति के लिये समर्थ होता है अत: केवल सामान्य से ज्ञानोत्पत्ति पक्ष में दिये गये 'व्यक्ति में अप्रवृत्ति' दूषण को अवकाश नहीं है । उदा० तन्तुवाय (=जुलाहा) भी अन्यतम वेमसंज्ञक उपकरण सापेक्ष हो कर ही वस्त्र को बुनता है । प्रतिनियत वेम-व्यक्ति के अभाव में भी तन्तुवाय वस्त्र बुनता है इसका मतलब यह नहीं है कि केवल तन्तुवाय से ही वस्रोत्पत्ति होती है, क्योंकि प्रतिनियत वेम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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