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________________ २२० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् रोधः ? "स्वहेतोस्तदन्यापेक्षया समर्थस्योत्पन्नस्याऽक्षणिकस्यासन्निधिकाल एवाऽक्षेपेण कार्यकारित्वं स्यात्, अन्यानपेक्षत्वादपेक्षणीयस्यापि संनिहितत्वादुत्तरोत्तरपरिणामस्याप्येकत्वेनाऽसत्त्वाद्' इति चेत् ? न, कालान्तरमाविकार्यकारित्वलक्षणस्याऽक्षणिकस्यान्यापेक्षत्वेऽपि कालान्तरापेक्षत्वात् क्षणवदक्षेपेण न कार्योत्पादकत्वम् । यथा हि अन्यसहायस्याये क्षणे समुत्पन्नस्य क्षणस्याऽनपेक्षत्वेऽपि द्वितीयक्षणापेक्षत्वान प्रथमक्षण एव कार्यारम्भकत्वम् अन्यथा कार्य-कारणयोरेकदैवोत्पत्तेर्द्वितीयक्षणे जगद् वस्तुशून्यम् अक्षणिकं वा स्यात्, तथाऽक्षणिकस्यापि कालान्तरापेक्षत्वानोत्तरपरिणामापेक्षकार्येऽक्षेपोत्पादकत्वम् । ___ अथ प्रागकारकस्वभावस्य पश्चादपि कथं कारकत्वम् अक्षणिकस्य कारकाऽकारकावस्थाभेदादेकत्वहानेः ? न, अस्याऽन्यत्रापि समानत्वाद । तथाहि- आत्मसत्ताकालेऽकारकस्वभावस्यापि क्षणस्य द्वितीये क्षणे कारकत्वम् अन्यथैककालत्वं कार्य-कारणयोः स्यादित्युक्तम् । न चैकदा कारकत्वमेवान्यदाऽकारकत्वं आप के लिये शोभास्पद नहीं रहेगा। *परस्परसांनिध्य में सामर्थ्य स्वीकार * बौद्ध : उपादान-सहकारी क्षणयुगल में अलग-अलग कोई सामर्थ्य नहीं होता, किन्तु जिन में पृथग् पृथग् कोई सामर्थ्य नहीं है ऐसे वे अपने हेतु से इस प्रकार ही उत्पन्न होते हैं कि परस्पर मिलने से सामर्थ्यवाले होते स्याद्वादी : क्षणिक में अन्य संनिधान में मिलित सामर्थ्य होने का मानते हैं तो फिर अक्षणिक में भी अन्य की सहायता मिलने पर सामर्थ्य होने का क्यो नहीं मानते ? बौद्ध : क्षणिक भाव अपने हेतुओं से ही ऐसा उत्पन्न होता है जो सहकारी की संनिधि में समर्थ होता स्थामा स्याद्वादी : अक्षणिक भाव भी अपने हेतुओं से ही ऐसा उत्पन्न होता है कि सहकारी मिलने पर समर्थ हो जाय । इस में क्या विरोध है ? बौद्ध : अक्षणिक भाव यदि अपने हेतुओं से ऐसा ही उत्पन्न हुआ है कि अन्य सहकारी को सापेक्ष रहकर समर्थ हो जाय, तब प्रथम क्षण में ही वह सहकारी से मिलित ही उत्पन्न हो कर अविलम्बेन अपने सभी कार्यों को निपटा देगा, कालान्तर की प्रतीक्षा नहीं करेगा, क्योंकि सहकारी से अतिरिक्त कोई उसका अपेक्षणीय है नहीं, और अपने हेतुओं से ही सहकारी से संनिहित ही उत्पन्न हुआ है । स्वयं चिर काल तक एक अखंड ही है इसलिये उसमें उत्तरोत्तर परिणाम या उन की अपेक्षा का होना भी असम्भव है। स्यावादी :- अक्षणिक भाव अपने हेतुओं से ऐसा ही उत्पन्न हुआ है कि उत्तरोत्तर क्षण सापेक्ष रह कर उत्तरोत्तर क्षण में अपना कार्य निपटाता रहे । इस प्रकार कालान्तरभाविकार्यकारित्व से युक्त ही वह उत्पन्न हुआ है अत: सहकारीभिन्न किसी की भी अपेक्षा न होने पर भी कालान्तरसापेक्ष होने से त्वरित सर्व कार्य नहीं निपटा सकता । जैसे आप का क्षणिक भाव भी उत्तरक्षणसापेक्ष होने से उत्तरक्षण में ही कार्य को उत्पन्न करता है, अपने जन्मक्षण में नहीं । कहने का मतलब यह है कि जैसे क्षणिक भाव अपने हेतुओं से अन्यसहाय युक्त ही आद्य क्षण में उत्पन्न होता है फिर भी वह आद्य क्षण में स्वकार्यकारी नहीं होता क्योंकि वह द्वितीयक्षण सापेक्ष होता है; यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो स्वजन्मक्षण में ही अपने कार्यों को भी उत्पन्न कर देगा और फिर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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