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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ २१९ तस्य दूषणं स्यात् ?! इत्येकत्र समर्थस्यान्यत्रापि सामर्थ्यमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथैकत्रापि न स्यादित्यवस्तुत्वं तस्य भवेत् । न च सर्वौकसामग्यधीनतोपकारः, मिनदेशकारणकलापसमवधानहेतूनामेकसामग्यधीनतोपकाराभावेऽपि स्वकार्योपयोगोपलब्धः । न च तेषामप्येकसामग्यधीनतोपकारः सम्भवति, अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां परस्परोत्पादने सामर्थ्यानवधारणात् तेषाम् । न हि कुशूलादिस्थस्य बीजादेरुदकादिभावानुविधानेन प्रतिसन्धानमनुभूयते तथापि तत्कल्पनायामतिप्रसंगः । ततो नैकसामग्यधीनताऽप्युपकारः इत्यनपेक्षोऽनुपकारी स्यात्, अपेक्षत्वे अक्षणिकस्याप्यपेक्षाप्रतिक्षेपोऽयुक्तः स्यात् ।। अथ क्षणयोः पृथक् सामर्थ्य नास्ति, स्वहेतोः सहितयोरेवोत्पन्नयोः पृथगसमर्थयोरपि सामयमभ्युपगम्यते । नन्वेवमक्षणिकस्यापि तदन्यसहायस्यैव सामर्थ्य किं नाभ्युपगम्यते ? 'स्वहेतुप्रतिनियमाद् युक्तं क्षणिके सामर्थ्य नाऽक्षणिक' इति चेत् ! नन्वेवमक्षणिकेऽपि स्वहेतुप्रतिनियमात् सामर्थ्य को वि स्याद्वादी : बीजली आदि के अन्त्यक्षण जो सर्वज्ञ-योगी के स्वविषयक ज्ञान को उत्पन्न करते हैं वहाँ भी परस्पर एक सामग्री अधीनतास्वरूप उपकार मौजूद है, तो जैसे वह अन्त्यक्षण विजातीयकार्य में उपयोगी बनती है वैसे सजातीय कार्य में भी क्यों उपयोगी नहीं बनेगी ? बौद्ध : वहाँ परस्पर एकसामग्रीअधीनतास्वरूप उपकार होने पर भी सजातीयकार्योत्पादन का सामर्थ्य ही नहीं होता, इसीलये सजातीयकार्योत्पादन में वह उपयोगी नहीं होता। ___स्याद्वादी : इस पर यह प्रश्न खडा होगा कि अपने सजातीयकार्य के लिये जो असमर्थ है वही निरंश क्षण स्वविषयक योगविज्ञान के लिये कैसे समर्थ बन जाता है ? यदि एक के लिये जो असमर्थ हो वही दूसरे के लिये समर्थ हो सकता है, तो परप्रकाशज्ञानवादी नैयायिक के मत में - जो ज्ञान अपने प्रकाशन में असमर्थ है वही अर्थ के प्रकाशन में समर्थ क्यों नहीं हो सकेगा ? फिर कैसे आप उस के सिर पर यह दोष मढ रहे हैं कि 'स्वप्रकाश में असमर्थ ज्ञान अर्थ का प्रकाश भी नहीं कर सकता अत: अर्थ के विचार पर ही पूर्णविराम लग जायेगा।' - यदि दोष देना हो तो एक के लिये जो समर्थ है उस को अन्य के लिये भी समर्थ मानना पडेगा, नहीं तो एक के लिये भी सामर्थ्य लुप्त रहेगा । फलत: बीजली आदि का अन्त्यक्षण अर्थक्रिया के अभाव में अवस्तु बन जायेगा। दूसरी बात यह है कि हर जगह एकसामग्रीअधीनतास्वरूप ही उपकार होता है ऐसा नहीं है, क्योंकि भिन्न भिन्न देश में रहे हुए कारण-समुदाय को एक स्थान में जुटाने वाले जो हेतुकलाप है उन में एकसामग्रीअधीनतास्वरूप उपकार नहीं होता फिर भी अपने अपने कार्य के लिये उपयोगी बनते देखे जाते हैं । 'वहाँ भी एकसामग्री-अधीनतास्वरूप ही उपकार है ऐसा कहना बेकार है, क्योंकि उन हेतुओं में अन्योन्य के उत्पादन में अन्वय-व्यतिरेक से सामर्थ्य उपलब्ध नहीं होता । कोठी में रहा हुआ बीज स्वयं जल-भूमि आदि भावों का अनुविधान करता हो ऐसा कहीं अनुसन्धान होता नहीं है, फिर भी वहाँ एक सामग्री अधीनता मानने का आग्रह रखेंगे तो विना आधार के ही सर्वत्र उस को मानने के लिये बाध्य होना पडेगा। सारांश, एकसामग्री-अधीनता यह सर्वसाधारण उपकार नहीं है । अन्य प्रकार का भी कोई उपकार सहकारी का सिद्ध नहीं है, अत: उपकारप्रयुक्त ही अपेक्षा मानेंगे तो सहकारी भाव अनुपकारी होने से अपेक्षणीय नहीं रहेगा, फलत: उस के अभाव में भी कार्य जन्म हो जायेगा । विना उपकार भी किसी तरह सहकारी की अपेक्षा मानेंगे तो अक्षणिक में तथाविध अपेक्षा का खंडन करना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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