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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ २०९ भेदः, गोदर्शनसमयेऽश्वं विकल्पयतो मनस्कारलक्षणोपादानभेदाभावेऽपि सविकल्पाऽविकल्पयोः परेण भेदाभ्युपगमात्, तद्भेदेऽपि च तदुत्तरकालभाविनोऽनुसन्धानस्याभेदानोपादानभेदात् भेद एवोपादेयस्य । अतः शक्तिभेदादेव भेदः कार्यस्य ।। शक्तिश्च भिन्नाऽभिन्ना शक्तिमतः - तद्हणेऽप्यग्रहणाद् भिन्ना, कार्यान्यथानुपपत्त्या च तत्रैव प्रतीयमाना सा ततोऽभिन्ना ।। __ व्यतिरेके शक्तिमतः शक्तेः, अशक्तात् कार्यानुत्पत्तेः । न च व्यतिरिक्तायाः शक्तरेव कार्योत्पत्तिर्भविष्यति, शक्तिमतोऽकारकत्वेनाऽवस्तुत्वप्रसङ्गात् । न च शक्तिमतोऽपि कारकत्वम्, तस्याऽसामर्थ्यात् । न च शक्तियोगात् तस्य शक्तत्वम्, अशक्तस्य भिन्नशक्तियोगेऽपि शक्तत्वानुपपत्तेः, शक्तेस्तत्रानुपयोगात्, तदुपयोगे वा शक्तितः शक्तिमत उत्पत्तिरभ्युपगता स्यात् । तथा च स्वहेतोरेव शक्तस्योत्पत्तिरभ्युपगन्तव्या किमर्थान्तरभूतशक्तिपरिकल्पनया ? शक्तस्य च स्वहेतोरेव तस्योत्पत्तौ किं शक्तियोगपरिकल्पनेन ?! नाऽपि शक्तिमतः शक्तिरभिव, शक्तिमद्हणेऽपि अगृहीतत्वात् । 'शक्तिः गृहीतैव तद्हणे, केवलम(?म्) तत्फलसाधात् विप्रलब्धो न तां व्यवस्यति' - असदेतत्, सर्वतो व्यावृत्तवस्तुवादिनां ★ पूर्वक्षण में उत्तरकार्योत्पत्ति की आपत्ति का निर्मूलन ★ यदि ऐसा कहा जाय - एक ही अक्षणिक भाव में यदि आप पूर्वकार्यकारित्व ही उत्तरकार्यकारित्व है (उन में भेद नहीं है) ऐसा मानेंगे तो पूर्व कार्य करते समय ही उत्तरकार्य भी उत्पन्न हो जायेगा क्योंकि उत्तरकार्यकारित्व पूर्वकाल में भी उस समय अक्षुण्ण है । - तो यह कथन अयुक्त है क्योंकि ऐसी आपत्ति तो क्षणिकवाद में भी लग सकती है - देखिये, कारणक्षण में स्वअव्यवहितउत्तरक्षणकार्यकारित्व अपनी सत्ता काल में विद्यमान होने से उसी क्षण में उत्तरक्षणकार्य भी हो जाने की विपदा आयेगी और कारण कार्य दोनों समानकालीन हो जायेंगे। दूसरी बात यह है कि बौद्ध जो उपादानभेद से ही कार्यभेद बता रहा है वह संगत नहीं है, अश्वदर्शनउत्पत्ति के क्षण में परिस्थिति अनुसार गोदर्शन और अश्वविकल्प की साम्रगी एक साथ जुट जाने पर दूसरे क्षण में गोदर्शन और अश्वविकल्प दो भिन्न कार्य एक साथ उत्पन्न होते हैं किन्तु वहाँ मनस्कारस्वरूप उपादान तो दोनों का एक ही होता है, बौद्ध को यह बात मान्य है । उपरांत, कार्यभेद होने के बाद भी उत्तरक्षण में जो गो एवं अश्व का अनुसन्धानात्मक कार्य उत्पन्न होता है वह तो एक ही होता है । इस प्रकार कारणभेद रहने पर भी कार्य एक उत्पन्न होता है और कारण अभेद रहने पर भी कार्यभेद होता है इसलिये सिद्ध हुआ कि उपादानभेद उपादेयभेद का प्रयोजक नहीं है । निष्कर्ष, शक्तिभेद ही कार्यभेद का प्रयोजक है। ★ शक्ति और शक्तिमान् में भेदाभेद ★ प्रसंग से व्याख्याकार यह भी बता देते हैं कि यह शक्ति, शक्तिमान् से भिन्नाभिन्न होती है । कारण, शक्तिमान् के ज्ञात रहने पर भी शक्ति ज्ञात नहीं होती अत: उन में भेद भी है; और अभेद इसलिये है कि शक्ति के विना अकेले (शक्तिमान् दण्डादि) से घटादि कार्य की उत्पत्ति न होने पर अभिन्नतया शक्तिमान में शक्ति की भी प्रतीति होती है । [शक्ति का अर्थी शक्तिमत् वस्तु का ही अन्वेषण करता है इसलिये भी अभेद है ।] शक्ति को यदि (शक्तिमान्) दण्डादि से सर्वथा भिन्न मानी जाय तो शक्तिशून्य यानी स्वयं अशक्त दण्डादि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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