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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम्
मूर्त्तस्तथाऽमूर्त्तान्तराद् व्यावर्त्तमानः प्रत्ययोऽमूर्तोऽपि मूर्त्तः स्यात् । अमूर्त्तात्मना तयोरभेदे कथं नोभयात्मकत्वं भावानाम् ? न च कल्पितो धर्मभेदः, तथाभ्युपगमे यथा परसत्त्वाद् व्यावर्त्तमानस्य घटादेः परविविक्तं स्वसत्त्वं कल्प्यते तथा स्वसत्त्वाद् व्यावर्त्तमानस्य स्वाऽसत्त्वप्रकृतिप्रसङ्गः । अथ परसत्त्वादेव तस्य व्यावृत्तिः न स्वसत्त्वाद्, नन्वेवं कथं न पारमार्थिकोऽन्यव्यावृत्तिधर्मभेदोऽभ्युपगतः स्यात् ? न च 'एकः संवृत्तिसन्नपि कल्प्यतेऽन्यो न' इति विभागो युक्तः, कल्पनायाः सर्वत्र निरंकुशत्वात् । तदेवं सदृशपरिणामसामान्यस्याऽबाधितप्रत्ययविषयत्वेन सत्त्वादसिद्धो हेतुरिति स्थितम् ।
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यदि ऐसा कहें कि 'धर्मविशेष को मानने की जरूर नहीं है, व्यावर्त्य गो- अश्वादि के भेद से ही उनकी अगोव्यावृत्ति और अनश्वव्यावृत्ति में भी भेद प्रयुक्त होगा और व्यावृत्तियों के भेद से ही उन में धर्मभेद यानी कल्पित सामान्य- विशेष भी हो जायेगा'- तो यह ठीक नहीं है । कारण, घट पदार्थ जैसे संस्कारादि अमूर्त्त पदार्थ से व्यावृत्त होने के कारण आप उस को 'मूर्त्त' कहते हैं ( मूर्त्तत्व रूप धर्म के आधार पर नहीं, ) वैसे बोध स्वयं अमूर्त होते हुए भी अन्य संस्कारादि अमूर्त पदार्थ से व्यावृत्त होने के कारण, बोध का भी 'मूर्त' व्यवहार प्रसक्त होने की आप को आपत्ति आयेगी, फलतः मूर्त्तत्व रूप धर्मविशेष का अंगीकार नहीं करेंगे तो मूर्तरूप से घट और बोध दोनों समान हो जायेंगे एवं संस्कार और बोध भिन्न हो जायेंगे । यदि कहें कि 'बोध संस्कारादि अन्य अमूर्त से व्यावृत्त होने के कारण मूर्त्त होते हुए भी स्वतः अमूर्त्त ही है इस लिये संस्कारादि से उसका अभेद ही रहेगा' तब तो बोध में मूर्त्तरूपता और अमूर्तरूपता उभय प्रसक्त होने से भावमात्र को उभयरूप क्यों नहीं अंगीकार करते ?
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★ घट में स्वसत्त्व की तरह स्वाऽसत्त्व की आपत्ति ★
यदि ऐसा आग्रह रखें कि धर्मविशेष (सामान्य) काल्पनिक है वास्तविक नहीं, तब एक आपत्ति दुर्निवार होगी- हम तो घट में पर रूप से असत्त्व और स्वरूप से सत्त्व मानते हैं । लेकिन आप तो वास्तविक परतः असत्त्व और स्वसत्त्व न मान कर परसत्त्वव्यावृत्त घटादि में परासाधारण काल्पनिक स्वसत्त्व मानना चाहेंगे, तो इसी प्रकार स्वसत्त्वव्यावृत्त घट में स्वाऽसत्त्व भी मानना पडेगा । यदि कहें कि - 'घट परसत्त्व से व्यावृत्त होता है किन्तु स्वसत्त्व से व्यावृत्त नहीं होता, इसलिये स्वाऽसत्त्व का आपादन शक्य नहीं' - यहाँ आप की नहीं चलेंगी, क्योंकि तब आप को अन्यव्यावृत्तिस्वरूप धर्मविशेष को वास्तविक मानने के लिये बाध्य होना ही पडेगा । कारण, जब कल्पना ही करना है तब तो अन्यव्यावृत्ति की तरह स्व में स्वव्यावृत्ति की भी कल्पना हो सकती है, वहाँ 'एक अन्यव्यावृत्ति सांवृत सत् होते हुए भी कल्पित की जाय और स्वव्यावृत्ति सांवृतसत् होते हुए भी उसकी कल्पना न की जाय' ऐसा पक्षपात करना ठीक नहीं है, क्योंकि कल्पना तो निरंकुश होने से दोनों तरह की जा सकती है ।
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सार यह है कि सदृशपरिणामात्मक सामान्य भी निर्बाधप्रतीति का विषय (भले ही विकल्प का विषय हो) होने से वास्तविक है, अतः आप का हेतु असिद्ध है ।
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तात्पर्य यह है कि बौद्धने जो प्रारम्भ में ऐसा कहा था- भिन्न अर्थों में अभेदाध्यवसायित्व हेतु से शाब्दिक प्रतीति में भ्रान्तता होती है- यहाँ वास्तव में सदृशपरिणामरूप सामान्य की वास्तविकता ( = निर्बाधप्रतीतिविषयता) साबित हो जाने से अब शाब्दिकप्रतीति अभेद ( सामान्यधारी) में ही अभेद (सामान्य) की अध्यवसायिनी सिद्ध
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