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प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद
तथा, कारणदोषाभावः पर्यु दासवृत्त्या भवदभिप्रायेण गुरणः। ततश्चाऽदुष्टकारणारब्धमिति वदता गुणवत्कारणारब्धमित्युक्त भवति । 'कारणगुणाश्च प्रमाणेन स्वकार्ये प्रवर्तमानेनापेक्ष्यमाणनिश्चायकप्रमाणापेक्षा अपेक्ष्यन्ते, तदपि प्रमाणं स्वकारणगुणनिश्चायकं स्वकारणगुणनिश्चयापेक्षं स्वकार्य प्रवतत इत्यनवस्थादूषणम्,-जातेऽपि यदि विज्ञाने, तावन्नार्थोऽवधार्यते" [पृ० १९-२० ] इत्यादिना ग्रन्थेन परपक्षे प्रासज्यमानं 'स्ववधाय कृत्योत्थापन' भवतः प्रसक्तम् । अथाऽदुष्टकारणजनितत्वनिश्चयमन्तरेणापि ज्ञानं स्वार्थनिश्चये स्वकार्ये प्रतिष्यते, तदसत्; संशयादिविषयीकृतस्य प्रमाणस्य स्वार्थनिश्चायकत्वाऽसंभवात्, अन्यथाऽप्रमाणस्यापि स्वार्थनिश्चायकत्वं स्यात् । तन्नाऽदुष्टकारणारब्धत्वमपि विशेषो भवन्नीत्या संभवति ।
[पयुदासनञ् से अदुष्टकारण गुण हो जायेंगे ] यहाँ जो दोषरहितकारणजन्यत्व को स्वरूपविशेष कहा गया उसमें जो कारणगत दोषाभाव विवक्षित है वह आपके मत से पर्यु दास वृत्ति से गुणस्वरूप भावात्मक पदार्थ में पर्यवसित होगा। फलतः दोषरहित कारणों से उत्पत्ति होने का जो कथन है उससे गुणवान् कारणों से उत्पत्ति होने की बात ही सूचित होती है । एवं च-"प्रमाण को अपने कार्य में प्रवृत्त होने के लिये जिन कारणगुणों की अपेक्षा है वे अज्ञात रह कर प्रमाण को अपने कार्य में प्रवृत्त होने के लिये सहायक नहीं बनते किन्तु यथार्थरूप से ज्ञात हो कर के अपेक्षित होते हैं। इसलिये कारणगुण का ज्ञान प्रमाणभूत होने के लिये किसी और निश्चायक प्रमाण की अपेक्षा रखेंगे। वे भी प्रमाणकारणगुण अपने कारणगुणसापेक्ष मानना होगा। फलत: उन कारणगुणों का भी प्रमाणात्मक ज्ञान होने में उनके भी कारणगुणों का निश्चय अपेक्षित होगा । फलत: प्रत्येक प्रमाण अपने कार्य में तभी प्रवृत्त होगा जब अपने अपने कारणगुणों का निश्चय होगा । इस निश्चय के लिये अपने कारणगुण एवं उसके निश्चय की अपेक्षा रहेगीइस प्रकार अनवस्था चलेगी।" इस प्रकार का जो अनवस्था दूषण "जातेऽपि यदि विज्ञाने तावन्नार्थोऽवधार्यते०" ( ज्ञान उत्पन्न होने पर भी तब तक अर्थ निश्चित नहीं होता० ) इत्यादि कारिका के उल्लेख से परत: प्रामाण्यवादी के पक्ष पर स्वतःप्रामाण्यवादी की ओर से आरोपित किया जाता था, यह तो अपने सिर ही आ पडा जो कि अपने ही वध के लिये कृत्या का उत्थापन तुल्य हुआ। तात्पर्य, शत्रुवध के लिये उत्थापित कृत्यासंज्ञक मंत्रमय शक्ति का उत्थापन अपने ही वध के लिये फलित हुआ।
अगर कहा जाय-"ज्ञान की अदुष्ट कारण से उत्पत्ति होने के कारण स्वकार्य में प्रवृत्ति होती है, एवं वहाँ दोषाभाव को पर्यु दासप्रतिषेधरूप में कारणगुण का ग्रहण करना होता है किन्तु इस में अनवस्था चलती है इसलिये अब हमारा कहना है कि अदुष्ट कारण से उत्पत्ति के निश्चय विना ही ज्ञान स्वकीय यथावस्थित विषय के निश्चयरूप स्वकार्य में प्रवृत्त होता है तो कोई अनवस्था आदि आपत्ति नहीं है"-तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रमाणज्ञान में प्रामाण्य का संशय और भ्रम होता है वहाँ स्वविषय का यथास्थित निश्चय असंभव है, किन्तु आपके हिसाब से वह संभवित
* प्राचीनकाल में कुछ लोग शत्रु का विनाश करने के लिये कृत्या नाम की देवी की आराधना करते थे। आराधना
के बाद वह जब प्रकट होती थी तब आराधक की इच्छानुसार उसके शत्रु का नाश कर देती थी। परन्तु उसकी आराधना में अगर कहीं कुछ गलती हो गयी तो वह प्रकट हो कर उसके आराधक का ही नाश कर देती थी। इसी को अपने वध के लिये कृत्या उत्थापन कहा गया है।
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