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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ क्रियाऽपि पदार्थादन्या, ततश्च तस्या प्रभावे कथमन्यस्याऽसत्त्वम् ? अतिप्रसंगादेव । व्यवच्छेद्याऽसंभवे च बाधावजितमिति विशेषणस्याप्ययुक्तत्वात् , न बाधाविरहोऽपि विज्ञानस्य विशेषः । (४)अथाऽदुष्टकारणारब्धत्वं विशेषः, सोऽपि न युक्तः, यतस्तस्याप्यज्ञातस्य विशेषत्वमसिद्धम् । ज्ञातत्वे वा कुतोऽदुष्टकारणारब्धत्वं ज्ञायते ? 'अन्यस्माददुष्टकारणारब्धाद्विज्ञानादिति चेत? अनवस्था। 'संवादाद्' इति चेव ? ननु संवादप्रत्ययस्याप्यदुष्टकारणारब्धत्वं विशेषोऽन्यस्माददुष्टकारणारब्धात संवादप्रत्ययाद्विज्ञायत इति सैवाऽनवस्था भवतः सम्पद्यत इति । किं च, ज्ञानसव्यपेक्षमदुष्टकारणारब्धत्वविशेषमपेक्ष्य स्वकार्ये ज्ञानं प्रवर्तमानं कथं न तत्तत्र परतः प्रवृत्तं भवति! क्रिया क्या उत्पन्न होने पर बाधित होती है अथवा C2 अनुत्पन्न ही बाधित होती है ? C1 उत्पन्न होने पर बाधित होने की बात अयुक्त है क्योंकि जब वह उत्पन्न ही हो गयी तब इसको क्या बाधित होना है ? अर्थक्रिया का तात्पर्य है कार्य, उसका बाधित होने का मतलब है उसकी उत्पत्ति रुक जाना, जब वह उत्पन्न हो ही गया तब उत्पत्ति में क्या रुकावट होने वाली है ? C2 अगर कहें-अनुत्पन्न अर्थक्रिया बाधित होती है तो यह भी अशक्य है क्योंकि जो उत्पन्न ही नहीं हुयी, अर्थात् उत्पत्ति के पूर्व असत् है उसका क्या बाध होगा? फिर बाधज्ञान काल में उसकी रुकावट होने की बात भी कहाँ ? यह भी ध्यान देने लायक है कि पुरोवर्तीरूप में भासमान विज्ञान रूप पदार्थ की अर्थक्रिया भी उससे भिन्न है । अब आप कहते हैं कि बाध के ज्ञान से बाध्य होने वाली अर्थक्रिया है, तो यहाँ निष्कर्ष यह आया कि अर्थक्रिया बाधित होने पर पदार्थ बाधित हो जायेगा। यह कैसे बन सकता है ? क्योंकि एक के अभाव में अन्य का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता अन्यथा वही अतिप्रसंग दोष आ पड़ेगा। (व्यवच्छेद्या....) इस रीति से विज्ञानस्वरूप, प्रमेय और अर्थक्रिया तीनों में कोई भी बाध्य नहीं हो सकता, तब बाधरहित इस विशेषण से व्यवच्छेद्य क्या है, अर्थात् कौन बाध्य है यह निश्चय न कर सकने से 'बाधरहित' यह विशेषण अयुक्त है । तात्पर्य, बाधविरह को भी विज्ञान का स्वरूपविशेष नहीं कह सकते। [ अदुष्टकारण जन्यत्व स्वरूपविशेष नहीं हो सकता ] (४) अगर कहें, 'अदुष्टकारणारब्धत्व अर्थात् दोषरहितकारणज यत्व यही विज्ञान का स्वरूपविशेष है'-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह अज्ञात रहने पर उसमें विशेष कता ही असिद्ध है। यदि कहें-ज्ञात होता हुआ वह विशेषण बनता है, तो वह निर्दोष कारणज यत्व ज्ञात कैसे हुआ? अगर कहें-निर्दोषकारणजन्य किसी दूसरे विज्ञान से यह ज्ञात होता है कि 'वह विज्ञान निर्दोषकारणजन्य है,' तब तो अनवस्था चलेगी। अगर कहें-संवाद यह भी एक बुद्धिरूप है-ज्ञानरूप है, वह भी जब तक निर्दोषकारणजन्यत्वरूप विशेष वाला ज्ञात न हो वहां तक प्रस्तुत विज्ञान का निर्दोष कारणजन्यत्व कैसे ज्ञात होगा ? और उसके लिये अन्य संवाद की आवश्यकता मानने पर आपको अनवस्था दोष लगेगा। किंच ज्ञानसव्यपेक्ष.... ) इसके अतिरिक्त, जब निर्दोष कारणों से उत्पत्तिरूप स्वरूपविशेष भी ज्ञात हो करके ही अपना कार्य करेगा तब वह भी ज्ञानसापेक्ष हआ और उस विशेष की अपेक्षा करके ज्ञान अपने यथार्थपरिच्छेदरूप कार्य में प्रदत्त होगा तो इस प्रकार प्रमाण अपने कार्य में परतः ही प्रवृत्त हुआ-इस बात का अब इनकार कैसे करेंगे ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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