SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ (५) अथ संवादित्वं विशेषः, सोऽभ्युपगम्यत एव, किन्तु संवादप्रत्ययोत्पत्तिनिश्चयमन्तरेण स न ज्ञातुं शक्यत इति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात, तदपेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तत इति तत्तत्र परतः स्यात् । अत एव निरपेक्षत्वस्याऽसिद्धत्वात्पूर्वोक्तन्यायेन 'ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयाः,.......इति प्रयोगे [ पृ० ५-५० ५ ] नाऽसिद्धो हेतुः । एतेनैव यदुक्त तत्राऽपूर्वार्थविज्ञानं, निश्चितं बाधवजितम् । अदुष्टकारणारब्धं, प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥ इति, तदपि निरस्तम्॥ यच्चोक्तम्-'यदि संवादापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते तदा चक्रकप्रसंग.' [ पृ० १८-A ] तदसंगतम्, 'यथावस्थितपरिच्छेदस्वभावमेतत्प्रमाणम्' इत्येवं निश्चयलक्षणे स्वकार्ये यथा संवादापेक्षं प्रमाणं प्रवर्तते न च चक्रकदोषः, तथा प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । यदपि 'अथ गृहीताः कारण गुणाः' [पृ० १९ ] इत्याद्य भिधानम् तदपि परसमयानभिज्ञतां भवतः ख्यापति, कारणगुणग्रहणापेक्षं प्रमाण स्वकार्ये प्रवर्तत इति परस्यानभ्युपगमाव । यच्चोक्तम्-'उपजायमानं प्रमाणमर्थपरिच्छेदशक्तियुक्तम्....' [ पृ०२० ] इति, तत्राऽविसंवादित्वमेव अर्थतथात्वपरिच्छेदशक्तिः, तच्च परतो ज्ञायते, तदपेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते इति तत्तत्र परतः स्थितम् । होगा, क्योंकि इस प्रमाण को अदुष्ट कारणों से उत्पत्ति का निर्णय तो अपेक्षित है नहीं, अन्यथा ऐसी अपेक्षा किये विना भी कोई ज्ञान स्वविषय का यथार्य निश्चायक होकर प्रमाणरूप बनता हो तो अप्रमाण ज्ञान भी स्वविषय का यथार्थ निश्चायक हो जायगा। फलतः आपके हिसाब से निर्दोष कारणों से उत्पत्ति यह ज्ञान का स्वरूपविशेष होना असंभव है। [संवादित्व को स्वरूपविशेष कहने में परतःप्रामाण्यापत्ति ] [५] अब यदि संवादित्व को ज्ञान का स्वरूपविशेप कहेंगे, तो यह तो हमें स्वीकृत हो है, किंतु कठिनाई यह है कि जब तक संवादज्ञान की उत्पत्ति का निश्चय नहीं होगा तब तक प्रस्तुत ज्ञान का संवादित्व यानी संवादसमर्थितत्वरूप स्वरूपविशेष ज्ञात नहीं हो सकता । यह वस्तु आगे स्पष्ट की जाने वाली है। अब यहाँ अगर प्रमाण को संवादसमर्थित बनाने के लिये संवाद ज्ञान की उत्पत्ति होना मान लेंगे तब तो प्रमाण उसका सापेक्ष रह कर अर्थ का यथार्थपरिच्छेदरूप अपने कार्य में प्रवर्त्तमान हुआ और उसमें उसका प्रापाण्य परतः हुआ। इसीलिये प्रामाण्य में निरपेक्षत्व यानी स्वतस्त्व सिद्ध न हो सकने से पूर्वोक्त प्रयोग में सापेक्षत्व हेतु असिद्ध नहीं है । वह प्रयोग इस प्रकार था - "ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदया: न ते स्वतोव्यवस्थितधर्मका यथाःप्रामाण्यादयः'जो अन्यकारण के उदय को सापेक्ष हैं वे अपने धर्म की स्वत: व्यवस्था नहीं कर सकता। जैसे अप्रामाण्य अपनी उत्पत्ति में दोषरूप कारण की उत्पत्ति को सापेक्ष है- इसलिये वह स्वतः व्यवस्थित धर्म वाला नहीं है । इस प्रयोग में कारणान्तरोदयसापेक्षता हेतु असिद्ध नहीं है । (एतेनैव यदुक्तं....) इसी प्रतिपादन से आपका यह कथन भी खण्डित हो जाता है जिसमें कहा गया है कि तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवजितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ।। अर्थः-जो निर्णयात्मक ज्ञान नूतनार्थग्राही एवं वाधरहित तथा अदुष्टकारणजन्य हो वही ज्ञान प्रमाणरूप में लोकस्वीकृत होता है।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy