SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अथ प्रेरणावाक्यस्याऽपौरुषेयत्वे पुरुषप्रणीतत्वाश्रया यथा गुणा व्यावृत्तास्तथा तदाश्रिता दोषा अपि । ततश्च तव्यावृत्तावप्रामाण्यस्यापि प्रेरणाया व्यावृत्तत्वात् स्वतः सिद्धमुत्पत्तौ प्रामाण्यम् । नन्वेवं सति गुणदोषाश्रयपुरुषप्रणीतत्वव्यावृत्तौ प्रेरणाया प्रामाण्याऽप्रामाण्ययोावृत्तत्वात् प्रेरणाजनिता बुद्धिः प्रामाण्याऽप्रामाण्यरहिता प्राप्नोति । ततश्च प्रेरणाजनिता बुद्धिर्न प्रमाणं न चाऽप्रमा । गुणदोषविनिमुक्तकारणेभ्यः समुद्भवात् ॥ इत्येवमपि प्राक्तनः श्लोकः पठितव्यः । अत एव यथा-[ द्रष्टव्य श्लो० वा० सू०२-६८ ] "दोषाः सन्ति न सन्तीति, पौरुषेयेषु चिन्त्यते । वेदे कतु रभावात्तु दोषाऽऽशंकैव नास्ति नः" । इत्ययं श्लोकः एवंपठितस्तथैवमपि पठनीय:“गुणाः सन्ति न सन्तीति, पौरुषेयेषु चिन्त्यते । वेदेकर्तु रभावात्तु गुणाऽऽशंकैव नास्ति नः ॥" प्रामाण्य की उत्पत्ति में गुण कारण हैं और गुण पुरुषसंबंध से उत्पन्न होते हैं । प्रस्तुत में-वेदवाक्यों के साथ गुणवत्पुरुष का संबंध न होने से वे भी गुणहीन हैं । फलतः गुणहीन वेदवाक्य से जो ज्ञान उत्पन्न होगा वह भी अप्रमाण होगा। ] [अपौरुषेय वचन न प्रमाण-न अप्रमाण ] मीमांसक की ओर से यदि यह कहा जाय-वैदिक विधिवाक्य अपौरुषेय होने से उनमें पुरुष की रचना से संबद्ध गुण जैसे निवृत्त हैं इसी प्रकार दोष भी निवृत्त हैं । बाक्य में दोप भी पुरुष के संबंध से उत्पन्न होता है, अतः वेदवाक्यों में दोष न रहने पर अप्रामाण्य नहीं रहेगा। इस लिये उससे जो ज्ञान उत्पन्न होगा वह उत्पत्ति में भी स्वतः प्रामाण्य से युक्त होगा। किन्तु यह कथन युक्त नहीं है-कारण, इस दशा में जब वेदवाक्य गुणवान एवं दोषवान् पुरुष के साथ असंबद्ध हैं तो उन वेदवाक्य में अप्रामाण्य की भाँति प्रामाण्य भी नहीं रहेगा, फलतः वेदवाक्य जन्य बोध प्रामाण्य-अप्रामाण्य उभय से शून्य होना चाहिये। इसलिए आपने वेदवाक्य से उत्पन्न ज्ञान करने के लिये जो पहले श्लोक पढा था 'प्रेरणाजनिता....' इत्यादि, उसको फिर से एक अन्य रीति से पढना चाहिये-- "प्रेरणाजनिता बुद्धि. न प्रमाणं न चाऽप्रमा । गुणदोषविनिर्मुक्तकारणेभ्यः समुद्भवात् ।। अर्थः-गुण और दोष उभय से रहित कारणों द्वारा उत्पन्न होने से वैदिक विधिवाक्य से उत्पन्न ज्ञान न तो प्रमाण है, न तो अप्रमाण है। [वेदवचन में गुणदोष उभय का तुल्य अभाव ] वेदवाक्यों से जन्य बुद्धि को स्वतः प्रमाण सिद्ध करने के लिये मीमांसक ने जो श्लोक पढा है - 'दोषाः सन्ति न सन्ती'ति पौरुषेयेषु चित्त्यते । वेदे कर्तुरभावातु दोषाऽऽशंकैव नास्ति नः ।। अर्थः-पुरुषरचितवाक्यों के विषय में यह चिन्ता की जाती है कि उनमें दोष हैं वा नहीं ? परन्तु वेद का कोई कर्ता ही नहीं है इसलिए हमें दोषों की आशंका होने का अवसर ही नहीं है । इस श्लोक को भी इस रूप से पढना चाहिये - गुणाः सन्ति न सन्तीति पौरुपयेषु चिन्त्यते । वेदे कर्तु रभावात्तु गुणाऽऽशंकैव नास्ति नः ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy