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प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद
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अर्थ:-वेदवाक्य से उत्पन्न बुद्धि दोषरहित वेदवाक्यादिकारणों से उत्पन्न हई है इसलिये प्रमाण है जैसे, हेतु के द्वारा, आप्तवचन के द्वारा और इन्द्रिय के द्वारा उत्पन्न होने वाली बुद्धि प्रमाण होती है।
इस श्लोक को कुछ परिवर्तन के साथ इस रोति से पढना चाहियेप्रेरणाजनिता बुद्धिरप्रमा गुणजितैः । कारणैर्जन्यमानत्वादलिंगाप्तोक्तबुद्धिवत् ॥
अर्थ:-वेदवाक्यों से उत्पन्न होने वाली बुद्धि गुणरहित वेदवाक्यों से उत्पन्न होने के कारण अप्रमाण है । जैसे, असद् हेतु और अनाप्त वचन से उत्पन्न बुद्धि अप्रमाण होती है ।
[ वेद वचन अपौरुषेय क्यों और कैसे ? ] [उपरोक्त कथन का तात्पर्य कुछ विस्तार से ज्ञातव्य है-मीमांसक वादी मानते हैं-प्रामाण्य स्वतः हैं, एवं वेद नित्य अर्थात् कर्तृ-अजन्य अनादिसिद्ध हैं। कर्तृ-अजन्य होने से वेदवाक्य में दोष वत्पुरुषजन्यत्व का संभव नहीं है, इसलिये वेदवाक्य सर्वथा यथार्थ है यानी प्रमाण हैं। अपौरुषेय मानने का हेतु यह है कि-वाक्यों में पुरुष के संसर्ग से दोष उत्पन्न होता है, क्योंकि पुरुष अगर संदेह या भ्रम से अथवा वञ्चनवृद्धि से युक्त हो तब उसके संदेहादिप्रयुक्त वाक्य से प्रमाणभत बोध के उदय का संभव नहीं है । वेदवाक्य में जब उसका कोई प्रवक्ता ही नहीं है तब उस वाक्य में पुरुष के संबन्ध से उत्पन्न होने वाले दोष की संभावना ही नहीं रहती। अतः उन निर्दोष वाक्य से उत्पन्न ज्ञान प्रमाण ही होगा । जैसे कि निर्दोष यानी सद् हेतु से उत्पन्न अनुमान और निर्दोष इन्द्रिय से उत्पन्न
जन्मकाल में ही प्रमाणरूप यानी स्वभाव से ही प्रमाणरूप में उत्पन्न होता है। उदाहरणार्थ:- सूर्य किरणों में कोई ऐसा पदार्थ मिलाज़ला नहीं है जिससे उनमें विकार उत्पन्न हो, अतः दोषरहित उन किरणों से वस्तु का शुद्ध रूप में प्रकाशन होता है। इससे विपरीत, जब तृणकाष्ठ आदि भीगे रहते हैं तो उनसे उत्पन्न अग्नि धूम से मिला हुआ उत्पन्न होता है, इसलिये उसके किरण भी धूमिल होने के कारण दोषयुक्त होने से वस्तु को शुद्ध रूप में प्रकाशित नहीं कर सकते । मीमासकों का कहना है कि वेद वचन सुर्य किरण तुल्य हैं अर्थात् स्वतः निर्दोष हैं। इसलिये उनसे उत्पन्न बोध प्रमाणरूप होता है।
___ इस के विरोध में-परतः प्रामाण्य वादी कहते हैं-जिन हेतुओं से आप वेदवाक्य जन्यबोध के प्रामाण्य को स्वत: सिद्ध मानते हैं, उन हेतुओं को कुछ बदल कर कहने से वेदवाक्यों द्वारा उत्पन्न होने वाला ज्ञान अप्रमाणरूप से सिद्ध होता है । मीमांसक कहते हैं-पुरुष संसर्ग से दोष उत्पन्न होते हैं, वेदवाक्यों का पुरुष के साथ कोई संबन्ध नहीं है इस लिये वेदवाक्य निर्दोष है । ठीक इस के विपरीत भी कहा जा सकता है कि-वाक्यों में पुरुष संसर्ग से गुण उत्पन्न होते हैं-जैसे, विद्वान् पुरुष स्वयं सत्य ज्ञान युक्त होता है इसलिये उसके वाक्य प्रमाण होते हैं। किंतु जो पुरुष गुणों से रहित है उस के वाक्य में अप्रामाण्य उत्पन्न होता है । दोषयुक्त हेतु से यदि अनुमिति होगी तो वह भी अप्रमाणरूप में ही उत्पन्न होती है। दूर से धूलिपटल को देख कर किसी को धूम का भ्रम हो जाय तो वह धूम से अग्नि का भ्रान्त अनुमान करता, है, असद् हेतु प्रयोज्य वह अनुमान यथार्थ नहीं होता एवं चक्षु आदि इन्द्रियों में निर्मलता न हो, कुछ रोग हो तब सीप भी रजतरूप में दीखाई पडती है-किन्तु वहाँ रजत ज्ञान मिथ्या होता है । तात्पर्य, गुणरहित हेतु से उत्पन्न होने के कारण अनुमान भ्रान्तिरूप होता है और गुणरहित' इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण प्रत्यक्ष ज्ञान भो भ्रान्तिरूप होता है । इस प्रकार
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