SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद न च यत्रापि गुणाः प्रामाण्यहेतुत्वेनाऽऽशंक्यन्ते तत्रापि गुणेभ्यो दोषाभाव इत्यादि वक्तव्यम, विहितोत्तरत्वात् । अपि च अपौरुषेयत्वेऽपि प्रेरणायाः न स्वतः स्वविषयप्रतीतिजनकव्यापारः, सदा संनिहितत्वेन ततोऽनवरतप्रतीतिप्रसंगात् । किंतु, पुरुषाभिव्यक्तार्थप्रतिपादकसमयाविर्भूतविशिष्टसंस्कारसव्यपेक्षायाः । ते च पुरुषाः सर्वे रागादिदोषाभिभूता एव भवताऽभ्युपगताः। तत्कृतश्च संस्कारो न यथार्थः, अन्यथा पौरुषेयमपि वचो यथार्थ स्यात् । अतोऽपौरुषेयत्वाभ्युपगमेऽपि समयकर्तृ पुरुषदोष. कृताप्रामाण्यसद्भावात् प्रेरणायामपौरुषेयत्वाभ्युपगमो गजस्नानमनुकरोति । तदुक्तम्-[प्र०वा०२-२३१] असंस्कार्यतया पुभिः सर्वथा स्यान्निरर्थता । संस्कारोपगमे व्यक्तं गजस्नानमिदं भवेत् ॥ अर्थः- पुरुषरचित वाक्यों में यह चिन्ता की जाती है-कि उनमें गुण हैं या नहीं ? परन्तु वेद का कोई कर्ता ही नहीं है । अतः उनमें गुणों की आशंका होने का अवसर ही नहीं है । 'जहाँ पर शंका होती हो कि गुण ये प्रामाण्य के कारणरूप में कार्य करते हैं वहां गुणों से दोषों का अभाव ही अर्थात्प्राप्त होता है'- इत्यादि जो पहले मीमांसकों ने कहा है वह भी युक्त नहीं है क्योंकि इसका उत्तर पहले दे दिया गया है। ('दोषाभाव' में प्रसज्यप्रतिषेध अभिप्रेत है या पर्यु दास ? दोनों स्थिति में अन्तत: प्रामाप्य गुणप्रयुक्त ही सिद्ध होता है-यह पहले पृ० ४४ में कह दिया है।) [अपौरुषेय वाक्य का प्रामाण्य अर्थाभिव्यंजक पुरुष पर अवलंबित ] यह भी ज्ञातव्य है कि-वेदवाक्य यदि अपौरुषेय हैं तो भी वह अपने विषय का स्वत: ज्ञान उत्पन्न करने का व्यापार नहीं करता। क्योंकि वह नित्य एवं सदा निकट वर्ती है, इसलिये यदि वह स्वयं ज्ञानोत्पत्ति व्यापार में संलग्न होगा तब सतत ही ज्ञानोत्पत्ति होती रहनी चाहिये, परन्तु नहीं होती है। इससे यह सूचित होता है कि वेदवाक्य स्वतः स्वप्रतीतिजनक व्यापार वाले नहीं, किन्तु पुरुषाभिव्यक्त अर्थप्रतिपादक जो संकेत, उससे जन्य जो अर्थबोधसंस्कार, उसकी सहायता से प्रेरणावाक्य अपने विषय की प्रतीति को उत्पन्न करता है । तात्पर्य, शब्दों का किस अर्थ के साथ वाच्य-वाचक भाव संबन्ध है-इस संकेत को अध्यापक पुरुष प्रकट करते हैं। जो लोग इस संकेत को जानते हैं उनको 'इस शब्द से यह अर्थ समझना' ऐसे संस्कार रूढ हो जाते हैं, तब उन्हें वेदवाक्य पढकर अर्थबोध होता है, इस प्रकार वेदवाक्य नित्य हो, अपौरुषेय हो, तब भी उनके अर्थ को जानने के लिये पुरुष की अनिवार्य आवश्यकता है। अब मीमांसक मतानुसार में सभी पुरुष रागादि दोष व्याकुल ही होते हैं, इसलिये पुरुष संकेत से जो संस्कार रूढ होगा वह यथार्थ नहीं हो सकता। अगर पुरुषसंकेत द्वारा उत्पन्न संस्कार भी यथार्थ हो तब तो पुरुष प्रतिपादित वचन भी यथार्थ होना चाहिये। इस प्रकार वेद को अपौरुषेय मानने पर भी संकेत कारक पुरुषों में दोष संभवित होने से पुरुषसंकेत से उत्पन्न ज्ञान में अप्रामाण्य उत्पन्न होना संभावित है। फलत: वेदवाक्य को अपौरुषेय स्कीकार करना यह तो हाथी के स्नान तुल्य व्यर्थ है। हाथी नदी में स्नान करता है तब उसके शरीर पर संलग्न धूलि दूर तो हो जाती है किन्तु स्नान करके बाहर आने पर तुरन्त ही सूंढ से अपने शरीर पर धूलीप्रक्षेप करने लगता है-इससे उसका स्नान व्यर्थ होता है । ठीक इस तरह मीमांसकों ने वेदवाक्यों को दोषअसंपृक्त रखने के लिये अपौपुरुषेय माना, किन्तु उनके अर्थ को समझने के लिये फिर पुरुष की अपेक्षा खडी हुई । अब पुरुष सदोष होने के कारण वेदवाक्यजन्य ज्ञान में अप्रामाण्य आ पडा। इस प्रकार वेदवाक्यों को अपौरुषेय मानना व्यर्थ परिश्रम ही हुआ। कहा भी है-[प्रमाणवात्तिक २-२३१ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy