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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
यदपि 'अनेकान्त' इत्यादि, तदप्यसंगतम् , अनन्तधर्माऽध्यासितवस्तुस्वरूपमनेकान्तः । न च स्वरूपमपरधर्मान्तरापेक्षमभ्युपगम्यते येन तत्र रूपान्तरोपक्षेपेणानवस्था प्रेर्येत तदपेक्षत्वे पदार्थस्वरूप. व्यवस्थवोत्सीदेत अपरापरधर्मापेक्षत्वेन प्रतिनियतापेक्षधर्मस्वरूपस्यैवाऽव्यवस्थितेः । ततश्चैकान्तस्यापि कथं व्यवस्था ? तथाहि-सदादिरूपतवैकान्त: तत्रैकान्ताभ्युपगमेऽपरं सदादिरूपं प्रसक्तम् , तत्राप्यपरमिति परेणाऽपि वक्तुं शक्यम् । अथ पररूपानपेक्षं सत्त्वादित्वमेवैकान्तः, तानन्तधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपमप्यनेकान्तः किं न स्यात? न चापरतद्रूपाभावे वस्तुनः स्वरूपमन्यथा भवति, अन्यथा अपरसत्त्वाद्यभावे सत्त्वादेरप्यन्यथात्वप्रसक्तिरित्यलं दुर्मतिविस्पन्दितेषत्तरप्रदानप्रयासेन । 'प्रात्मैकत्वज्ञानात्' इत्यादिग्रन्थस्तु सिद्धसाध्यतया न समाधानमर्हति । यथोक्तमुक्तिमार्गज्ञानादेरपरस्य तदुपायस्वेनाऽभ्युपगम्यमानस्य प्रमाणबाधितत्वेन मिथ्यारूपत्वान्न तत्साधकत्वमित्यलमतिप्रसगेन । तत् स्थितमेतत्-'अनुपमसुखादिस्वभावामात्मनः कथंचिदव्यतिरिक्तां स्थितिमुपगतानाम्' इति ।।
प्रथमखंडः समाप्तः का हमें इष्ट ही है । यदि इस प्रकार नहीं मानेंगे तो मुक्तता ही असगंत बन जायेगी, यह पहले कह दिया है।
[ अनेकान्तवाद में अनवस्थादि का परिहार ] यह जो कहा था कि-'अनेकान्त में भी अनेकान्त को मानना पड़ेगा'-यह दोष भी असंगत है क्योंकि अनेकान्त का अर्थ है अनन्त धर्मों से अध्यासित वस्तुस्वरूप । वस्तु का स्वरूप अन्य धर्मान्तर को सापेक्ष हम नहीं मानते हैं जिस से उस अन्य धर्मान्तर में अन्य अन्य धर्मान्त रसापेक्षता के आपादन से अनवस्था का आरोपण हो सके। यदि पदार्थ के धर्मों को अन्य अन्य धर्मों की अपेक्षा मानेगे तो पदार्थ के स्वरूप को व्यवस्था का ही उच्छेद हो जायेगा क्योंकि अन्य अन्य धर्म की अपेक्षा चालु रहने से किसी एक नियत आपेक्षिक धर्म की भी व्यवस्था नहीं हो सकेगी । यह भी प्रश्न है कि उत्तरोत्तर अपेक्षा का आपादन करते रहने पर एकान्त भी कैसे व्यवस्थित हो सकेगा ? देखिये- वस्तु एकान्त सत् है' इस एकान्त में भी यदि एकान्तवादी एकान्त को मानेगा तो वहाँ एकान्त सत्व को अन्य एकान्तसत्त्व की अपेक्षा माननी पड़ेगी, फिर वहाँ भी नये नये एकान्तसत्त्व की अपेक्षा होती रहेगी-ऐसा अनेकान्तवादी एकान्तवादी को भलीभाँति कह सकता है। यदि यहाँ अनवस्था को निवृत्त करने के लिये कहा जाय कि-पररूप से निरपेक्ष सत्त्व यही एकान्त है तो अनेकान्तवादी भी क्यों नहीं कह सकता कि अनन्तधर्मों से आक्रान्त वस्तुस्वरूप ही अनेकान्त है ? ! अपर वस्तु का ताप्य किसी एक वस्तु में न होने मात्र से वस्तु का अपना स्वरूप मिट नहीं जाता, बदल नहीं जाता । यदि ऐसा हो सकता तब तो अपर वस्तुगत सत्व के अभाव में किसी एक वस्तु का अपना सत्त्व भी समाप्त हो जाने को आपत्ति अचल है । दुबुद्धि के विलास जैसे कुविकल्पों का (यानी पूर्वपक्षी के वचनों का) इस से अधिक उत्तर देने का प्रयास करने की अब हमें आवश्यकता नहीं है । तथा, 'आत्मा एक है' ऐसे ज्ञान से आत्मा का परमात्मा में विलय हो जाय यह मुक्ति है इस मत का आपने जो प्रतिषेध किया है वह तो हमारे लिये सिद्धसाधन जैसा ही है इस लिये उसका नया समाधान देने की आवश्यकता नहीं। सारांश, सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्ररूप पूर्वप्रतिपादित मोक्षमार्ग से भिन्न प्रकार का मोक्षमार्ग जो नैयायिक आदि ने माना है वह घटता नहीं है, प्रमाण से बाधित है, अत एव मिथ्यास्वरूप होने से, उससे मोक्षप्राप्ति का सम्भव नहीं है, इतना कहना पर्याप्त है, अधिक विस्तार क्यों करें ? !
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