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प्रथमलपट-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा
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यच्चोक्तम् - एबमात्मनोऽपि नित्यत्वमेव सुख-दुःखादे: तद्गुणत्वेन ततोऽर्थान्तरस्य विनाशेऽप्यविनाशात' इत्यादि, तत् प्राक प्रतिक्षिप्तम । यदपि कार्यान्लरेप चाऽकर्तृत्वं न प्रतिषिध्यते' इत्यादि तदप्यसारम, एकान्तपक्षे कार्यकर्तत्वस्यवाऽसम्भवात यच्च नचानेकान्तभावनातो विशिष्टशरीरलाभे प्रतिबन्धः' इत्यादि तन्न प्रतिसमाधानमर्हति अनभ्युपातोपालम्भमात्रत्वात् । यच्च मुक्तावप्यनेकान्तो न व्यावर्त्तते' इति तदिष्यत एय. स्वमस्यादिना मुलस्वेऽप्यन्यसत्वादिनाऽमुक्तत्वस्येष्टत्वात् । अन्यथा तस्य मुक्तत्वमेव न स्यात् इति प्रतिपादितत्वात् ।
वह भी अब नहीं रहतो क्योंकि परासत्त्व वस्तु का स्व-रूप होने से, पर का ग्रहण न होने पर भी वस्तुस्वरूप के ग्रहण से उसका ग्रहण हो सकेगा । हमारे पक्ष में अभाव सर्वथा अतिरिक्त पदार्थ नहीं है इसलिये-'अभाव तुच्छ होने से सहकारियों के द्वारा कुछ भी उपकार होने की सम्भावना न रहने से अभाव में ज्ञानजनकता नहीं हो सकेगी-ऐसा दोष भी निवृत्त हो जाता है । तथा,-'भाव और अभाव में परस्पर उपकारक-उपकार्य भाव न होने से उन दोनों का कोई सम्बन्ध नहीं घट सकता'-यह दोष भी निवृत्त हो जाता है, क्योंकि हमारा मत यह है कि भाव और अभव सर्वथा भिन्न नहीं होते किन्तु भावाभावोभयस्क पही पदार्थ अपनी कारणसामग्री से उत्पन्न होता है और वैसा ही प्रत्यक्ष में भासित होता है।
असद् आकार के प्रतिभास को बिना किसी अपराध हो मिथ्या कहना सगत नहीं, क्योंकि सआकार प्रतिभास को भी मिथ्या कहने की आपत्ति आयेगी । 'असद् आकार कोई प्रतिभास ही नहीं होता' ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि अन्य से विविक्तरूप में (=भिन्नरूप में) अर्थात् पररूप से असत् स्वरूपवालोवस्तु का अवभास अनुभवसिद्ध है। अन्य से विविक्तता तो अभावरूप अर्थात् पराऽसत्त्वरूप ही है और वह वस्तु के स्व-सत्त्व से कथंचिद् अभिन्न ही है इसलिये स्वसत्त्व की तरह वह भी ज्ञानजनक बने यह संगत है । यह विविक्तता ज्ञानजनक होने से प्रत्यक्ष में भासेगी। प्रत्यक्ष ज्ञान में उसके भासित होने के कारण, ज्ञाता उस अन्यपदार्थ से निवृत्त हो कर अपनी इष्ट वस्तु में प्रवृत्ति आदि व्यवहार करेगा। इस प्रकार एकान्तभेद या एकान्त अभेद पक्ष में उक्त अनवस्थादि दोष लग सकते हैं किन्तु कथंचित् भेदाभेद पक्ष में कोई विरोध नहीं है, आपाततः दिखने वाले विरोध का परिहार हो चुका है-इसलिये वस्तु को सद्-असत् उभयस्वरूप मानने पर स्व-देशकालादि में वस्तु की असत्त्वमूलक अनुपलब्धि आदि होने का कोई दोष यहाँ अवसरप्राप्त नहीं है।
यह जो आपने कहा था,-आत्मा नित्य है और सुख-दुख उसके गुण हैं, उससे भिन्न हैं, अतः सुखादि के नाश से आत्मा का नाश नहीं हो जाता-इस का तो पहले हो प्रतिक्षेप हो चुका है। तथा यह जो कहा था कि-जिन कार्यों को वह नहीं करता उन कार्यों के प्रति आत्मा में अकर्तृत्व का हम प्रतिबंध नहीं करते हैं-यह भी असार है क्योंकि आप के एकान्तनित्यता के मत में तो आत्मा में कायकर्तृत्व हो नहीं घट सकता है। यह जो कहा था-अनेकान्त भावना से विशिष्टशरीर का लाभ अवश्य हो ऐसा कोई नियम नहीं....इत्यादि, वह समाधान को योग्यता भी नहीं रखता क्योंकि जो हमें अमान्य है उसके ऊपर वे सब उपालम्भ हैं, हमारी वंसी मान्यता ही नहीं है कि विशिष्टशरीर का लाभ हो । तथा, यह जो कहा था-'मुक्ति भी अनेकान्तजित नहीं रहेगी'-यह तो हमें मान्य ही है क्योंकि वहाँ स्व सत्त्वादिरूप से मुक्तता होने पर भी परसत्त्वादिरूप से मुक्तता न होने
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