SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 689
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५२ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ पपन्नमेव । यदा हि पारमाथिकपररूपव्यावृत्तिमत् तत्स्वरूपमध्यक्षे प्रतिभाति तदा स्वरूपमेव परतस्तस्य भेदः, तद्ग्रहणमेव चाध्यक्षतस्तद्भदग्रहणम् , अन्यथा पारमार्थिकपराऽसत्त्वाभावे स्वसत्त्दवत् परसत्त्वास्मकत्वप्रसंगान तत्स्वरूपमेव भेदः, नापि स (तत्प्रतिभासनमेव भेदप्रतिभासनं स्यात् । अत एवाऽन्यापोहस्य पदार्थात्मकत्वेऽपरापरामायकल्पनया नानवस्था । नापि परग्रहणमन्तरेण तभेदग्रहणाभावादितरेतराश्रयत्वाद् भेदाऽग्रहणम् । न चाऽभावस्य तुच्छतया सहकारिभिरनुपकार्यस्य ज्ञानाऽजनकत्वम् , नापि भावाऽभावयोरनुपकार्योपकारकतयाऽसम्बन्धः, भावाभावात्मकस्य पदार्थस्य स्वसामग्रीत उत्पन्नस्य प्रत्यक्षे तथैव प्रतिभासनात् । न चाऽसदाकारावभासस्य मिथ्यात्वम् , सदाका. रावभासेऽपि तत्प्रसंगात् । न चाऽसदवभासस्याऽभावः, अन्यविविक्तावभासस्यानुभवसिदत्वात् , विविक्तता चास्याभावरूपत्वात् , तस्याश्च स्वसत्वात् कथंचिदभिन्नतया तहद् ज्ञानजनकत्वेनाध्यक्षे प्रतिभासमानाया अन्यपरिहारेण तत्रैव प्रवृत्त्यादिव्यवहारहेतुत्वाद् भेदाभेदैकान्तपक्षस्योक्तदोषत्वात् कथंचिद् भेदाभेदपक्षस्य परिहृतविरोधत्वान्न सदसद्रूपत्वे स्वदेशादावप्यनुपलब्धिप्रसंगाविदोषः । [ परासत्त्व के विना स्वभावनै यत्य का अभाव ] यदि यह कहा जाय-अभाव की निवृत्ति की महीमा से पदार्थ भावरूप अथवा किसी नियतरूपवाला नहीं होता है, किन्तु अपनी कारणसामग्री से उत्पन्न होता हुआ वह अपने नियतप्रकार के स्वभाव से विशिष्ट ही उत्पन्न होता है । तथा उस पदार्थ के सामर्थ्य से उत्पन्न होने वाला तद्विषयक प्रत्यक्ष ही अपने विषयभूत पदार्थ को व्यवहारपथ में ले आता है । जब ऐसा है तब पराऽसत्वरूप इतरेतराभाव की कल्पना से क्या लाभ ?-तो इसका उत्तर यह है कि यदि इतरेतराभाव की नि:सार कल्पना ही की जाय तो कोई लाभ नहीं है, किन्तु हमारा आशय यह है कि अपनी अपनी कारणसामग्री से अपने अपने नियतस्वभाव से विशिष्ट पदार्थ की उत्पत्ति ही पराऽसत्त्व के विना संगत नहीं हो सकतो। तथा अपने अपने नियतस्वरूप का प्रतिभास भी परासत्त्व के प्रतिभास से अभिन्न ही होता है । इसलिये जो यह कहा जाता है कि-अपने स्व-रूप का अनुभव होता है तब अन्यरूप का अनुभव न होने से उसका निराकरण नहीं हो सकता- इस बात का भी उपपादन तभी हो सकता है जब सद्-असत् उभय स्वरूप ही वस्तु का प्रतिभास होता है यह माना जाय । __ जब वास्तविकपररूपव्यावृत्तिवाला वस्तुस्वरूप प्रत्यक्ष में भासित होता है तो वह पररूपव्यावत्ति भी अर्थात् पर की अपेक्षा से भेद, यह भी वस्तु का स्वरूप ही हुआ। इसलिये पररूपव्यावृत्ति का प्रत्यक्ष से ग्रहण यही पर के भेद का ग्रहण फलित हुआ। तात्पर्य, पररूपच्यावृत्ति भी वस्तु का पारमार्थिक स्वरूप है, कल्पित नहीं। यदि वस्तु में वास्तविक पराऽसत्त्व नहीं रहेगा तो स्वसत्त्व जैसे वस्तु का स्व-रूप है वैसे परसत्व भी वस्तु का स्व-रूप हो जायेगा । तो फिर पराऽसत्वरूप भेद का उच्छेद हो जायेगा, और परसत्त्व का प्रतिभास ही भेदप्रतिभासरूप होता है वह नहीं रहेगा। [अन्यापोह को पदार्थरूप मानने में अनवस्थादि दोष नहीं ) उपरोक्त चर्चा से यह भो निश्चित हो जाता है कि अन्यापोह कथंचित् पदार्थरूप है (सर्वथा तुच्छ नहीं है। इसलिये भाव से उसका भेद करने के लिये नये नये अभाव की कल्पना रूप अनवस्था दोष को अब अवकाश नहीं है । तथा 'पर वस्तु के ग्रहण के बिना भेद का अग्रह और भेदग्रह के विना परवस्तु का अग्रह'-इस तरह अन्योन्याश्रय के कारण भेद ग्रह का उच्छेद हो जाने की जो आपत्ति है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy