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________________ प्रथमखण्ड - का० १- मुक्तिस्वरूपमीमांसा पेक्षाकारणान्यं किं नाभ्युपगम्यते ? ! प्रसाधितं चानिन्द्रियजं सकलपदार्थविषयमध्यक्षं ज्ञानं सर्वज्ञसाधन प्रस्तावे इति न सेन्द्रियशरीरापेक्षाकारणजन्यत्वाभावे तज्ज्ञानस्य प्रतिनियतविषयत्वाभा वादभाव एवाभ्युपगन्तु ं युक्तः । अपि च, सकलपदार्थप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य स्वभावः स च सेन्द्रियदेहाद्यपेक्षाकारणस्वरूपावरणेनाच्छाद्यतेऽपवर कावस्थित प्रकाश्यपदार्थप्रकाशकस्वभावप्रदीप इव तदावारकशरावादिना तदपगमे तु प्रदीपस्येव स्वप्रकाश्यप्रकाशकत्वं ज्ञानस्याऽयत्न सिद्धमिति कथमावरणभूत सेन्द्रियदेहाद्यभावे तदवस्थायां ज्ञानस्याप्यभावः प्रेर्येत ? अन्यथा प्रदीपावारकशरावाद्यभावे प्रदीपस्याप्यभावः प्रेरणीयः स्यात् । न च शरावादेरावारकस्य प्रदीपं प्रत्यजनकत्वमाशंकनीयम्, तथाभूतप्रदीपरिणतिजनकत्वाच्छरावादे:, अन्यथा तं प्रत्यावारकत्वमेव तस्य न स्यात्, परिणामस्य च प्रसाधयिष्यमाणत्वात् । उपलभ्यते च संसारावस्थायामपि वासीचन्दनकल्पस्य मुमुक्षोः सर्वत्र समवृत्ते विशिष्टध्यानादिव्यवस्थितस्य सेन्द्रियशरीरव्यापाराऽजन्यः परमाह्लादरूपोऽनुभवः, तस्यैव भावनावशादुत्तरोत्तरामवस्थामासायतः परमकाष्ठागतिरपि सम्भाव्यत एवेत्येतदपि सर्वज्ञसाधन प्रस्तावे प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते । यह ठीक है क्योंकि एक विशुद्धज्ञानक्षण से अपने अन्वयी दूसरे ज्ञान की उत्पत्ति में अन्वयप्रयोजकविधया देश-काल कारण बनते हैं, जब कि मुक्तिदशा में शरीरादि का कोइ उत्पादक कारण न होने से वह अनुत्पन्न ही रहेगा, फिर अपेक्षाकारण कैसे हो सकेगा ? [ ज्ञानोपत्ति में देह की कारणता अनिवार्य नहीं ] यदि आप इन्द्रियसहित देहरूप अपेक्षाकारण के विना ज्ञानादि के उद्भव को नहीं मानते हैं तो यह भी मानना पड़ेगा कि शरीरादिअपेक्षाकारणजन्य ज्ञान मर्यादितविषयवाला ही होता है जैसे कि नेत्रादिइन्द्रियजन्यज्ञान । अब ऐसा मानने पर, "संपूर्ण सत्-असत् वस्तुवर्ग किसी एक ज्ञान का विषय है, क्योंकि प्रमेय हैं, उदा० अंगुलिपचक" इस अनुमान से सिद्ध होने वाला सर्वज्ञज्ञान भी शरीरादिअपेक्षाकारणजन्य हो मानने से मर्यादितविषयवाला ही मानना पड़ेगा, सारांश, वह सर्वविषयक नहीं माना जा सकेगा। यदि आप कहें कि - "अर्थवत् प्रमाणम्" इस भाष्यवचन का अवलबन कर के हम सर्वज्ञ के ज्ञान को सकलपदार्थविषयक होने से सकलपदार्थजन्य मानेगे । अथवा सर्वज्ञज्ञान को इन्द्रियसहित शरीररूप अपेक्षाकारणजन्य नहीं मानेगे, क्योंकि शरीरजन्य मानने पर सर्वविपयकता घटती नहीं है" - तो हम कहते हैं कि मुक्तिदशा में भी देहादि अपेक्षा कारण से अजन्य ज्ञान क्यों नहीं मानते हैं ? सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण में यह तो दिखा दिया है कि सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियजन्य न होने पर भी सकलपदार्थविषयक होता है । इसलिये, इन्द्रियसहित शरीररूप अपेक्षाकारण से अजन्य सर्वज्ञज्ञान मर्यादितविषयवाला न होने मात्र से उसका सर्वथा अभाव ही मान लेना युक्तियुक्त नहीं है । ६३५ [ ज्ञान का स्वभाव सकलवस्तु प्रकाशकत्व ] तदुपरांत, यह विचारणीय है कि सर्वपदार्थ प्रकाशकारिता यह ज्ञान का स्वभाव है, इन्द्रियसहित देहादिअपेक्षाकारण यह उसका आवरण है और उससे वह स्वभाव आच्छादित हो जाता है । जैसे, किसी एक कक्ष में रहे हुए प्रकाशयोग्य पदार्थों का प्रकाशन करना प्रदीप का स्वभाव है और शरावादि उसके लिये आवरणभूत है जिससे वह आच्छादित होता । जब प्रदीप का आवरण शरा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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